पृष्ठ:चिंतामणि.pdf/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१००
चिन्तामणि


घृणा के स्थूल विषय प्रायः सब मनुष्यों के लिए समान होते हैं। सुगन्ध और दुर्गन्ध, सौन्दर्य और भद्दापन इत्यादि के विषय में अधिकांश एकमत रहता है। यह दूसरी बात है कि एक प्रकार की सुगन्ध की अपेक्षा दूसरे प्रकार की सुगन्ध किसी को अधिक अच्छी लगे, पर गुलाब की गन्ध को कोई दुर्गन्ध नहीं कहेगा। घृणा और श्रद्धा के मानसिक विषय भी सभ्य जातियों के बीच प्रायः सब हृदयों में समान और निर्दिष्ट होते है। वेश्यागमन, जूआ, मद्यपान, स्वार्थपरता, कायरता, आलस्य, लम्पटता, पाषंड, अनधिकारचर्चा, मिथ्योभिमान आदि विषय उपस्थित होने पर प्रायः सब मनुष्य घृणा करने के लिए विवश हैं। इसी प्रकार स्वार्थत्याग, परोपकार, इन्द्रियसंयम आदि पर श्रद्धा पर होना एक प्रकार स्वाभाविक-सा हो गया है। मतभेद वहाँ देखा जाता है जहाँ और विषयों को पाकर लोग अनुबन्ध द्वारा घृणा के इन प्रतिष्ठित मूल विषयों तक पहुँचते हैं। यदि एक ही व्यापार से एक आदमी को घृणा मालूम हो रही है और दूसरे को नहीं, तो यह समझना चाहिए कि पहला उस व्यापार के आगे पीछे चारों ओर जिन रूपों की उद्भावना करता है, दूसरा नहीं।

दल-बल सहित भरत को वन में आते देख निषाद को उनके प्रति घृणा उत्पन्न हो रही है और राम को नहीं; क्योंकि निषादराज भरत के आगमन में असहाय राम का मार निष्कण्टक राज्य करने की उद्भावना करता है और राम नहीं। इस प्रकार के भेद का कारण, मनुष्य के अनुबन्ध-ज्ञान की उलटी गति है। अनुबन्ध-ज्ञान का क्रम या तो प्रस्तुत विषय पर से उसे संघटित करनेवाले कारणों की ओर चलता है या परिणामों की ओर। किसी प्रस्तुत विषय को पाकर हर एक आदमी अनुबन्ध द्वारा उससे वास्तविक सम्बन्ध रखनेवाले अतः समान विषयों तक नहीं पहुँच सकता। एक बात को देखकर हर एक आदमी उसका एक ही या समान कारण या परिणाम नहीं बतलाएगा। किसी रियासत के नौकर अपने एक मित्र से कहा कि 'तुम कभी भूलकर भी इस रियासत में नौकरी न करना'। इस कथन में एक आदमी को तो