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घृणा

हितकामना की झलक दिखाई पड़ रही है और दूसरे को ईर्ष्या की। इससे एक उस पर श्रद्धा करता है और दूसरी घृणा। जहाँ घृणा के मूल विषय प्रत्यक्ष रूप में सीधे हमारे सामने आते हैं वहाँ कोई मतभेद नहीं दिखाई देता। पर कभी-कभी स्वयं ये विषय हमारे सामने नहीं आते। इनके अनुमित लक्षण हमारे सामने रहते हैं जो और और विषयों के भी लक्षण हो सकते हैं। घृणा सम्बन्धी इस प्रकार का मतभेद सभ्य जातियों में, जिनमें उद्देश्यों के छिपाने की चाल बहुत है, अधिक देखा जाता है। एक ही आदमी को कोई परम धार्मिक नेता समझता है, कोई पूरा मक्कार। एक ही राजकीय कार्रवाई को कोई व्यापार-स्वातन्त्र्य का प्रयत्न समझता है, कोई राज्य का लोभ।

मूसाई और ईसाई लोग देवपूजकों से इसलिए घृणा नहीं करते कि वे छोटी वस्तुओं पर श्रद्धा-भक्ति करते हैं, बल्कि यह समझकर कि वे उनके जमीन और आसमान बनानेवाले खुदा से दुश्मनी किए बैठे हैं। अपने बनाने और पालने वाले से वैर ठानना कृतघ्नता है। अतः उनकी घृणी आरोपित कृतघ्नता के प्रति है, देवपूजा के प्रति नहीं। संस्कार द्वारा ऐसे आरोपों पर यहाँ तक विश्वास बढ़ा कि अरब और यहूद की धर्मपुस्तकों में मूर्त्तिपूजन या देवाराधन महापातक ठहराया गया। अँगरेज़ कवि मिल्टन ने प्राचीन जातियों के देवताओं को शैतान की फ़ौज के सरदार बनाकर बड़ी ही संकीर्णता और कट्टरपन का परिचय दिया है। सीधे-सादे गोस्वामी तुलसीदासजी से भी बिना यह कहे न रहा गया—

जे परिहरि हरि-हर-चरन भजहिं भूतगन घोर।
तिनकी गति मोहिं देहु विधि जो जननी मत मोर॥

भिन्न-भिन्न मतवालों में जो परस्पर घृणा देखी जाती है वह अधिकतर ऐसे ही आरोपों के कारण। एक के आचार-विचार से जब दूसरी घृणा करता है तब उसकी दृष्टि यथार्थ में उस आचार-विचार पर नही रहती है, बल्कि ऊपर लिखे घृणा के सामान्य मूलाधारों में से किसी पर रहती है।