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चिन्तामणि

भय बढ़ेगा नहीं। किसी को अपने प्रति ईर्ष्या करते देखकर हम उससे घृणा प्रकट करेंगे। हमारी घृणा उसमें नई ईर्ष्या उत्पन्न कर उसकी ईर्ष्या बढ़ाएगी नहीं। घृणा पर ईर्ष्या नहीं होती है, ईर्ष्या होती है किसी की उन्नति या चढ़ती देखकर। प्रतिकार के रूप में जो अहित-कामना उत्पन्न होती है वह ईर्ष्या नहीं है। घृणा के बदले में तो घृणा, क्रोध या वैर होता है।

यह जानकर कि घृणा प्रेष्य मनेाविकारों में से है लोगों को बहुत समझ-बूझकर उसे स्थान देना और प्रकट करना चाहिए। ऊपर कहा जा चुका है कि घृणा निवृत्ति का मार्ग का दिखलाती है अर्थात् अपने विषयों से दूर रखने की प्रेरणा करती है। अतः यदि हमारी घृणा अज्ञानवश ऐसी वस्तुओं से है जिनसे हमें लाभ पहुँच सकता है तो उनके अभाव का कष्ट हमें भोगना पड़ेगा। शारीरिक बल और शिक्षा आदि से जिन्हें घृणा है वे उनके लाभों से वंचित रहेंगे। किसी बुद्धिमान् मनुष्य से जो मन में घृणा रक्खेगा वह उसके सत्संग के लाभों से हाथ धोएगा।

उपयुक्त घृणा को भी यदि वह शुद्ध है तो प्रकट करने की आवश्यकता नहीं होती। घृणा का उद्देश्य जिसके हृदय में वह उत्पन्न होती है उसी की क्रियाओं का निर्धारित करना है, जिसके प्रति उत्पन्न होती है उस पर किसी तरह का प्रभाव डालना नहीं। अतः उपयुक्त घृणा का भी उसके पात्र पर यत्नपूर्वक प्रकट करने की आवश्यकता नहीं है। यदि हमें किसी आदमी से खालिस घृणा मात्र है हम उससे दूर रहेंगे, हमें इसकी जरूरत न होगी कि हम उसके पास जाकर कहे कि "हमें तुमसे घृणा है।" जब क्रोध, करुणा या हितकामना आदि का कुछ मेल रहेगा तभी हम अपनी घृणा प्रकट करने को आकुल होंगे। हमें जिस पर क्रोधमिश्रित घृणा होगी उसी के सामने हम अपनी घृणा प्रकट करके उसे दुःख पहुँचाना चाहेगे; क्योकि दुःख पहुँचाने की प्रवृत्ति क्रोध की है घृणा की नहीं। इस प्रकार जिसके कार्यों से हमें घृणा उत्पन्न होगी यदि उस पर कुछ दया या उसके हित की