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घृणा

कुछ चिन्ता होगी तभी हम उसे उन कार्यों से विरत करने के अभिप्राय से उस पर अपनी घृणा प्रकट करने जायँगे। पर इन दोनों अवस्थाओं में यह भी हो सकता है कि जिस पर हम घृणा प्रकट करें वह हमसे बुरा मान जाय।

मनोविकारों का उत्पन्न होने देने और न उत्पन्न होने देने की इच्छा को मनोविकारों से स्वतंत्र समझना चाहिए। किस वस्तु से घृणा उत्पन्न होना एक बात है और घृणा के दुःख को न उत्पन्न होने देने के लिए उस वस्तु को दूर करने या उससे दूर होने की इच्छा दूसरी बात। हम घृणा के दुःख का अनुभव का अनुभव की आशंका कर चुके तब उससे बचने के आकुल हुए। आकुलता को हम "घृणा लगने का भय" कह सकते हैं। एक पूछता है "क्यों भाई! तुम उसके सामने क्यों नहीं जाते?" दूसरा कहता है "उसका चेहरा देखकर और उसकी बात सुनकर हमें क्रोध लगता है।" इस प्रकार की अनिच्छा का हम "क्रोध की अनिच्छा" कह सकते हैं। किसी वस्तु का अच्छा लगना एक बात है और उस अच्छी लगने के सुख के उत्पन्न करने के लिए उस वस्तु की प्राप्ति की इच्छा दूसरी बात।

धृणा और भय की प्रवृत्ति एक-सी है। दोनों अपने-अपने विषयों से दूर होने की प्रेरणा करते हैं। परन्तु भय का विषय भावी हानि का अत्यन्त निश्चय करनेवाला होता है और घृणा का विषय उसी क्षण इन्द्रिय या मन के व्यापारों में संकोच उत्पन्न करनेवाला। घृणा के विषय से यह समझा जाता है कि जिस प्रकार का दुःख यह दे रहा है उसी प्रकार का देता जायगा पर भय के विषय से यह समझा जाता है कि अभी और प्रकार का अधिक तीव्र दुःख देगा। भय क्लेश नहीं है, क्लेश की छाया है; पर ऐसी छाया है जो हमारे चारों ओर घोर अन्धकार फैला सकती है। सारांश यह है कि भय एक अतिरिक्त क्लेश है। यदि जिस बात का हमें भय था वह हम पर आ पड़ी तो हमें दोहरा क्लेश पहुँचा। इसी से आनेवाली अनिवार्य आपदाओं के पूर्वज्ञान की हमें उतनी आवश्यकता नहीं,