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कविता क्या है


पर-प्रतिषेध के प्रसार बीच तेरे, नर!
क्रीड़ामय जीवन-उपाय है हमारा यह।
दानी जो हमारे रहे वे भी दास तेरे हुए;
उनकी उदारता भी सकता नही तू सह।
फूली फली उनकी उमङ्ग उपकार की तू
छेकता है जाता हम जायँ कहाँ, तूही कह!"

पेड़-पौधे लता-गुल्म आदि भी इसी प्रकार कुछ भावों या तथ्यों की व्यञ्जना करते हैं जो कभी-कभी कुछ गूढ़ होती है। सामान्य दृष्टि भी वर्षा की झड़ी के पीछे उनके हर्ष और उल्लास को; ग्रीष्म के प्रचण्ड आतप में उनकी शिथिलता और म्लानता को; शिशिर के कठोर शासन में उनकी दीनता को; मधुकाल में उनके रसोन्माद, उमंग और ह्रास को; प्रबल बात के झकोरों में उनकी विकलता को; प्रकाश के प्रति उनकी ललक को देख सकती है। इसी प्रकार भावुकों के समक्ष वे अपनी रूप चेष्टा आदि द्वारा कुछ मार्मिक तथ्यों की भी व्यञ्जना करते हैं। हमारे यहाँ के पुराने अन्त्योक्तिकारों ने कहीं-कहीं इस व्यञ्जना की ओर ध्यान दिया है। कहीं-कहीं का मतलब यह है कि बहुत जगह उन्होंने अपनी भावना का आरोप किया है, उनकी रूपचेष्टा या परिस्थिति से तथ्य-चयन नहीं। पर उनकी विशेष-विशेष परिस्थितियों की ओर भावुकता से ध्यान देने पर बहुत से मार्मिक तथ्य सामने आते हैं। कोसों तक फैलें कड़ी धूप में तपते मैदान के बीच एक अकेला वट वृक्ष दूर तक छाया फैलाए खड़ा है। हवा के झोंकों से उसकी टहनियाँ और पत्ते हिलहिलकर मानो बुला रहे हैं। हम धूप से व्याकुल होकर उसकी ओर बढ़ते हैं। देखते हैं उसकी जड़ के पास एक गाय बैठी आँख मूँदे जुगाली कर रही है। हम लोग भी उसी के पास आराम से जा बैठते हैं। इतने में एक कुत्ता जीभ बाहर निकाले हाँफता हुआ उस छाया के नीचे आता है और हममें से कोई उठकर उसे छड़ी लेकर भगाने लगता हैं। इस