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चिन्तामणि

ग्राहक। अधिकतर कहने का अभिप्राय यह है कि जहाँ कवि पूरा चित्रण नहीं करता वहाँ पाठक या श्रोता को भी अपनी ओर से कुछ मूर्ति-विधान करना पड़ता है। योरपीय साहित्य-मीमांसा में कल्पना को बहुत प्रधानता दी गई है। है भी यह काव्य का अनिवार्य साधन, पर है साधन ही, साध्य नहीं, जैसा कि उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है। किसी प्रसंग के अन्तर्गत कैसा ही विचित्र मूर्ति-विधान हो पर यदि उसमें उपयुक्त भावसञ्चार की क्षमता नहीं है तो वह काव्य के अन्त त न होगा।

मनोरञ्जन

प्रायः सुनने में आता है कि कविता का उद्देश्य मनोरञ्जन है। पर जैसा कि हम पहले कह आए हैं कविता का अन्तिम लक्ष्य जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य-हृदय का सामञ्जस्य-स्थापन है। इतने गम्भीर उद्देश्य के स्थान पर केवल मनोरञ्जन का हलका उद्देश्य सामने रखकर जो कविता का पठन-पाठन या विचार करते है वे रास्ते ही में रह जानेवाले पथिक के समान हैं। कविता पढ़ते समय मनोरञ्जन अवश्य होता है, पर उसके उपरान्त कुछ और भी होता है और वही और सब कुछ है। मनोरञ्जन वह शक्ति है जिससे कविता अपना प्रभाव जमाने के लिए मनुष्य की चित्रवृत्ति को स्थित किए रहती है, उसे इधर-उधर जाने नहीं देती। अच्छी से अच्छी बात को भी कभी-कभी लोग केवल कान से सुन भर लेते है, उनकी ओर उनका मनोयोग नही होता। केवल यही कहकर कि 'परोपकार करो', 'दूसरों पर दया करो', 'चोरी करना महापाप है', हमें यह आशा कदापि न करनी चाहिए कि कोई अपकारी उपकारी, कोई क्रूर दयावान् या कोई चोर साधु हो जायगा। क्योकि ऐसे वाक्यों के अर्थ की पहुँच हृदय तक होती ही नहीं, वह ऊपर ही ऊपर रह जाता है। ऐसे वाक्यों द्वारा सूचित व्यापारों का मानव-जीवन के बीच कोई मार्मिक चित्र सामने न पाकर हृदय उनकी अनुभूति की ओर प्रवृत्त ही नहीं होता।