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चिन्तामणि

समझते आ रहे हैं। हिन्दी के रीति-काल के कवि तो मानो राजाओं-महाराजाओं की काम-वासना उत्तेजित करने के लिए ही रखे जाते थे। एक प्रकार के कविराज तो रईसों के मुँह में मकरध्वज रस झोकते थे, दूसरे प्रकार के कविराज कान में मकरध्वज रस की पिचकारी देते थे। पीछे से तो ग्रीष्मोपचार आदि के नुसख़े भी कवि लोग तैयार करने लगे। गर्मी के मौसम के लिए एक कविजी व्यवस्था करते हैं—

सीतल गुलाब-जल भरि चहबच्चन में,
डारि कै कमलदल न्हायवे को धँसिए।
कालिदास अंग अंग अगर अतर सङ्ग,
केसर उसीर नीर धनसार घँसिए॥
जेठ में गोविंद लाल चन्दन के चहलन,
भरि भरि गोकुल के महलन बसिए।

इसी प्रकार शिशिर के मसाले सुनिए—

गुलगुली गिलमै, गलीचा है, गुनीजन हैं,
चिक हैं, चिराकैं हैं, चिरागन की माला हैं।
कहै पदमाकर है गजक गजा हू सजी,
सज्जा है, सुरा है, सुराही हैं, सुप्याला हैं॥
शिशिर के पाला को न व्यापत कसाला तिन्है
जिनके अधीन एते उदित मसाला हैं॥

 

सौन्दर्य

सौन्दर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है, मन के भीतर की वस्तु है। योरपीय कला-समीक्षा की यह एक बड़ी ऊँची उड़ान या बड़ी दूर की कौड़ी समझी गई है। पर वास्तव में यह भाषा के गड़बड़झाले के सिवा और कुछ नहीं है। जैसे वीरकर्म से पृथक् वीरत्व कोई पदार्थ नहीं, वैसे ही सुन्दर वस्तु से पृथक् सौन्दर्य कोई पदार्थ नहीं। कुछ रूप-रंग की वस्तुएँ ऐसी होती है जो हमारे मन में आते ही थोड़ी देर