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कविता क्या है


प्यारी के बूझत और तिया को
अचानक नाम लियो रसिकाई॥
आई उनै मुँह में हँसी,
कोहि तिया पुनि चाँप सी भौंह चढ़ाई।
आँखिन तें गिरे आँसू के बूँद,
सुहाग गयो उड़ि हंस की नाई॥

इसके विरुद्ध बिहारी की उन उक्तियों में जिनमें विरहिणी के शरीर के पास ले जाते ले जाते शीशी का गुलाबजल सूख जाता है; उसके विरह ताप की लपट के मारे माघ के महीने में भी पड़ोसियों का रहना कठिन हो जाता है, कृशता के कारण विरहिणी साँस खींचने के साथ दो-चार हाथ पीछे और साँस छोड़ने के साथ दो-चार हाथ आगे उड़ जाती है, अत्युक्ति का एक बड़ा तमाशा ही खड़ा किया गया है। कहाँ यह सब मजाक, कहाँ विरह वेदना!

यह कहा जा चुका है कि उमड़ते हुए भाव की प्ररेणा से अकसर कथन के ढङ्ग मे कुछ वक्रता आ जाती है। ऐसी वक्रता काव्य की प्रक्रिया के भीतर रहती है। उसका अनूठापन भाव-विधान के बाहर की वस्तु नहीं। उदाहरण के लिए दासजी की ये विरहदशासूचक उक्तियाँ लीजिए—

अब तौ बिहारी के वे बानक गए री,
तेरी तन-दुति-केसर को नैन कसमीर भो।
श्रौन तुव बानी स्वाति बूँदन के चातक भे,
साँसन को भरिबो द्रुपदजा को चीर भो।
हिय को हरष मरुधरनि को नीर भो,
री! जियरो मनोभव-शरन को तुनीर भो।
ए री! बेगि करिकै मिलापु थिर थापु,
न तौ आपु अब चहत अतनु को सरीर भो॥

ऐसी ही भाव-प्रेरित वक्रता द्विजदेव की इस मनोहर उक्ति में है—