पृष्ठ:चिंतामणि.pdf/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१९०
चिन्तामणि

तात्पर्य के उपयुक्त संयोजक अव्ययों का व्यवहार जैसा उन्होंने चलाया वैसा उनके पहले न था। विराम की परख भी उन्हें राजा लक्ष्मणसिंह और राजा शिवप्रसाद से कहीं अच्छी थी।

चली आती हुई काव्यभाषा के स्वरूप पर भी उनकी दृष्टि गई। उन्होंने देखा कि बहुत से ऐसे शब्द, जिन्हें बोलचाल से उठे कई सौ वर्ष हो गए थे, कविताओं में बराबर लाए जाते हैं जिससे वे सर्वसाधारण के लगाव से कुछ दूर पड़ती जाती हैं। 'चक्कवै', 'ठायो', 'करसायल', 'ईठ', 'दीह', 'ऊनो', 'लोय' आदि के कारण बहुत से लोग हिन्दी-कविता को अपने से कुछ दूर की चीज़ समझने लगे थे। दूसरा दोष जो बढ़ते-बढ़ते बहुत बुरी हद तक पहुँच गया था, वह शब्दों का तोड़-मरोड़ था। जैसे कपियों का स्वभाव 'रूख तोड़ना' तुलसीदासजी ने बताया है वैसे ही कवियों का स्वभाव शब्द तोड़ना-मरोड़ना हो गया था। भाषा की सफाई पर बहुत कम ध्यान रहता था। बाबू हरिश्चन्द्र द्वारा इन बातों का भी बहुत कुछ सुधार—चाहे जान में या अनजान में—हुआ। इस प्रकार काव्य की ब्रजभाषा के लिए भी उन्होंने बहुत अच्छा रास्ता दिखाया। अपने रसीले कवित्तों और सवैयों में उन्होंने चलती भाषा का व्यवहार किया है, जैसे—

आजु लौं जौ न मिले तो कहा, हम तौ तुम्हरे सब भाँति कहावैं!
मेरो उराहनो है कुछ नाहि, सबै फल आपने भाग के पावैं॥
जो हरिचन्द भई सो भई, अब प्रान चले चहैं तासों सुनावैं।
प्यारे जू! है जग की यह रीति, बिदा के समय सब कंठ लगावैं॥

इसी कारण उनकी कविता का प्रचार भी देखते-देखते हो गया है।लोगों के मुँह से उनके सवैये भी चारों ओर सुनाई देने लगे, उनके बनाए गीत स्त्रियाँ तक घर-घर में गाने लगीं। उनकी रचना लोकप्रिय हुई। उनके समय में जो संग्रह-ग्रन्थ बने उन सबमें उनकी कविताएँ विशेषतः सवैये भी रखे गए। लीक पीटनेवालों की पुरानी पड़ी हुई शब्दावली हटा देने से उनकी काव्यभाषा में भी बड़ी सफ़ाई दिखाई पड़ी।