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चिन्तामणि


इन महाकवियों ने कथाप्रसंग के अतिरिक्त जहाँ वर्णन की रोचकता के लिए मनुष्य-व्यापार दिखाए हैं वहाँ इन्होंने ऐसे ही स्थलों के व्यापारों को दिखलाया है जहाँ मनुष्य से प्रकृति की सन्निकटता है—जैसे ग्रामों के आस-पास किसानों का खेत जोतना या काटना, ग्वालों का गाय चराना, इत्यादि इत्यादि। जैसे मेघदूत में यक्ष मेघ से कहता है—

(क) त्वय्यायत्तं कृषिफलमिति भ्रूविकारानभिज्ञैः
प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः।
सद्यस्सीरोत्कषण-सुरभि क्षेत्रमारुह्य मालं
किञ्चित्पश्चाद् ब्रज लघुगतिः किचिदेवोत्तरेण॥
(ख) कृपी निरावहिं चतुर किसाना।
जिमि बुध तजहि मोह मद माना॥

सच्चे कवि ऋतु आदि के वर्णन में ऐसे ही व्यापारों को सामने लाए है। ऐसे कवि ग्रीष्म में छाया के नीचे बैठकर हाँफते हुए कुत्तों और पानी में बैठी हुई भैंसो का उल्लेख चाहे भले ही कर जायँ, पर पसीने से तर रोकड़ मिलाते हुए मुनीबजी की ओर ध्यान न देंगे।

मनुष्य के व्यापार परिमित और संकुचित है। अतः बाह्य प्रकृति के अनन्त और असीम व्यापारों के सूक्ष्स से सूक्ष्म अंशों को सामने करके भावना या कल्पना को शुद्ध और विस्तृत करना भी कवि का धर्म है, धीरे-धीरे लोग इस बात को भूल चले। इधर उच्च श्रेणी के भी जो कवि हुए उन्होंने अधिकतर मनुष्य की चित्तवृत्तियों के विविध रूपों को कौशल और मार्मिकता के साथ दिखाया पर बाह्य प्रकृति की स्वच्छन्द क्रीड़ा की ओर कम ध्यान दिया। पीछे से तो राजाश्रयलोलुप मँगते कवियों के कारण कविता केवल वाक्पटुता या शब्दों का शतरंज बन गई; विषयी लोगों के काम की चीज़ हो गई। भर्तृहरि के समय ही से यह दुरवस्था आरम्भ हो गई थी जिस पर उन्होंने दुःख के साथ कहा था—

पुरा विद्वत्तासीदुपशमवता क्लेशहतये,
गता कालेनासौ विषयसुख-सिद्‍‌ध्यै विषयिणाम्॥