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चिन्तामणि

निरीक्षण की चाल ही नहीं और जिसमें कल्पना के सामने आनेवाले चित्रों (ImaGery) के बीभत्स और घिनौने होने की कुछ परवा न कर भावों के उत्कर्ष ही की ओर ध्यान रक्खा जाता है। यदि ऐसा न होता तो "मरे हूँ पै आँखें ये खुली ही रह जायँगी" ऐसे पद्य वे न लिखते। भावों का उत्कर्ष उन्होंने अच्छा दिखलाया है। वन, नदी, पर्वत आदि के चित्रों द्वारा मनुष्य की कल्पना को स्वच्छ, और स्वस्थ करने का भार उन्होंने अपने ऊपर नहीं लिया था।

उनकी रचनाओं में विशुद्ध प्राकृतिक वर्णनों का अभाव बराबर पाया जाता है। वस्तु-वर्णन में उन्होंने मनुष्य की कृति ही की ओर अधिक रुचि दिखाई। जैसे "सत्यहरिश्चन्द्र" के गंगा के इस वर्णन में—

नव उज्जल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच-बिच छहरत बूँद मध्य मुक्ता मनु पोहति॥
लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।
जिमिं नरगन मन विविध मनोरथ करत मिटावत॥
कासी कहँ प्रिय जानि ललकि भेंट्यो उठि धाई।
सपनेहू नहि तजी रही अंकम लपटाई॥
कहूँ बधे नव घाट उच्च गिरिवर सम सोहत।
कहुँ छतरी, कहुँ मढ़ी बढ़ी मन मोहत जोहत॥
धवल धाम चहुँ ओर, फरहरत धुजा पताका।
घहरति घंटाधुनि, धमकत घौंसा करि साका॥
मधुरी नौवत बजति, कहूँ नारी नर गावत।
बेद पढ़त कहुँ द्विज कहुँ जोगी ध्यान लगावत॥

काशी के लोगों के विलक्षण स्वभाव तथा ऊँची-ऊँची हवेलियों और तंग गलियों का वर्णन करने ही के लिए "काशी के छायाचित्र" लिखा गया।

'चन्द्रावली नाटिका' में एक जगह यमुना के तट का वर्णन आया है। पर वह भी परम्परा मुक्त (Conventional) ही है। उसमें