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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं आदि की भरमार इस बात को सूचित करती है कि कवि का मन प्रस्तुत प्राकृतिक वस्तुओं पर रमता नहीं था, हट-हट जाता था। कुछ अंश देखिए—

१.

तरनि-तनूजा-तट तमाल तरुवर बहु छाये।
झुके कूल सों जल परसन हित मनहु सुहाए॥
किधौ मुकुर में लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥

मनु आतप वारन तीर को सिमिटि सबै छाए रहत।
कै हरि-सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥

२.

कहूँ तीर पर कमल अमल सोभित बहु भाँतिन।
कहुँ सैबालन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन॥
मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखति ब्रज सोभा।
कै उमगे पिय-प्रिया-प्रेम के अगनित गोभा॥
कै करिकै कर बहु, पीय को टेरत निज ढिग सोहई।
कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई॥

३.

कै पिय पद-उपमान जानि यहि निज उर धारत।
कै मुख करि बहु भृङ्गन मिस अस्तुति उच्चारत॥
कै ब्रज तियगन-बदन-कमल की झलकति झाँईं।
कै ब्रज हरिपद-परस हेतु कमला बहु आईं॥

कै सात्त्विक अरु अनुराग दोउ ब्रजमण्डल बगरे फिरत।
कै जानि लच्छमी भौन यहि करि सतधा निज जल धरत॥