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चिन्तामणि

किताब बैठाकर की जायगी तो निष्फल ही नहीं बाधक भी होगी। भाव की प्रेरणा से जो अप्रस्तुत लाए जाते हैं उनकी प्रभविष्णुता पर कवि की दृष्टि रहती है; इस बात पर रहती है कि इनके द्वारा भी वैसी ही भावना जगे जैसी प्रस्तुत के सम्बन्ध में है।

केवल शास्त्र-स्थिति-सम्पादन से कविकर्म की सिद्धि समझ कुछ लोगों ने स्त्री की कटि की सूक्ष्मता व्यक्त करने के लिए भिड़ या सिंहिनी की कटि सामने रख दी है, चन्द्र-मंडल और सूर्य-मंडल के उपमान के लिए दो घंटे सामने कर दिए हैं। पर ऐसे अप्रस्तुत-विधान केवल छोटाई बड़ाई या आकृति को ही पकड़कर, केवल उसी का हिसाब-किताब बैठाकर, हुए हैं; उस सौन्दर्य्य की भावना की प्रेरणा से नहीं जो उस नायिका या चन्द्रमण्डल के सम्बन्ध में रही होगी। यह देख कर सन्तोष होता है कि हिन्दी की वर्त्तमान कविताओं में प्रभाव-साम्य पर ही विशेष दृष्टि रहती है।

भाषा-शैली को अधिक व्यंजक, मार्मिक और चमत्कारपूर्ण बनाने में भी कल्पना ही काम करती है। कल्पना की सहायता यहाँ पर भाषा की लक्षणा और व्यंजना नाम की शक्तियाँ करती हैं। लक्षणा के सहारे ही कवि ऐसी भाषा का प्रयोग बेधड़क कर जाते हैं जैसी सामान्य व्यवहार में नहीं सुनाई पड़ती। ब्रजभाषा के कवियों में घनानन्द इस प्रसंग में सबसे अधिक उल्लेख-योग्य हैं भाषा को वे इतनी वशवर्त्तिनी समझते थे कि अपनी भावना के प्रवाह के साथ उसे जिधर चाहते थे उधर बेधड़क मोड़ते थे। कुछ उदाहरण लीजिए—

(१) अरसानि गही वह वानि कछू सरसानि सों आनि निहोरत है;
(२) ह्वैहैं सोऊ घरी भाग-उघरी अनन्दघन सुरस वरसि, लाल, देखिहौं हमैं हरी।
(३) उघरो जग छाय रहे घनाआनँद चातक ज्यों तकिए अब तौं।
(४) मिलत न कैहूँ भरे रावरी अमिलताई हिये में किये बिसाल जे बिछोह-छत है।