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रसात्मक-बोध के विविध रूप


(५) भूलनि चिन्हारि दोऊ है न हो हमारे तातें बिसरनि रावरी हमैं लै बिसरति है।
(६) उजरनि वसी है हमारी अँखियानि देखौ, सुबस सुदेस जहाँ भावत बसत हौ।

ऊपर के उद्धरणों के मोटे टाइपों में छपे स्थलों में भाषा की मार्मिक वक्रता एक-एक करके देखिए। (१) बानि धीमी या शिथिल पड़ गई कहने में उतनी व्यञ्जकता न दिखाई पड़ी अतः कवि ने कृष्ण का आलस्य न कहकर उनकी बानि (आदत) का आलस्य करना कहा। (२) अपने को खुले भाग्यवाली न कहकर नायिका ने उस घड़ी को खुले भाग्यवाली कहा, इससे सौभाग्य-दशा एक व्यक्ति ही तक न रह कर उस घड़ी के भीतर सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त प्रतीत हुई। विशेषण के इस विपर्य्यय से कितनी व्यञ्जकता आ गई! (३) मेघ छाना और उघड़ना तो बराबर बोला जाता है, पर कवि ने मेघ के छाए रहने और श्रीकृष्ण के आँखों में छाए रहने के साथ ही साथ जग का उघड़ना (खुलना, तितर-बितर होना या तिरोहित होना) कह दिया जिसका लक्ष्यार्थ हुआ जगत् के फैले हुए प्रपञ्च का आँखों के सामने से हट जाना, चारों ओर शून्य दिखाई पड़ना। (४) कृष्ण की अमिलताई (न मिलना) हृदय के घाव में भी भर गई है जिससे उसका मुँह नहीं मिलता और वह नहीं पूजता। भरा भी रहना और न भरना या पूजना में विरोध का चमत्कार भी है। (५) हम कभी-कभी आत्म-विस्मृत् हो जाती है; इससे जान पड़ता है कि आप हमें लिए-दिए भूलते हैं अर्थात् उधर आप हमें भूलते हैं, इधर हमारी सत्ता ही तिरोहित हो जाती है। (६) हमारी आँखों में उजाड़ बसा है अर्थात् आँखों के सामने शून्य दिखाई पड़ता है। इसमें भी विरोध का चमत्कार अत्यन्त आकर्षक है।

आज-कल हमारी वर्त्तमान काव्यधारा की प्रवृत्ति इसी प्रकार की लाक्षणिक वक्रता की ओर विशेष है। यह अच्छा लक्षण है। इसके द्वारा हमारी भाषा की अभिव्यञ्जना-शक्ति के प्रसार की बहुत कुछ