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चिन्तामणि

आशा है। श्री सुमित्रानन्दन पन्त की रचना से कुछ उदाहरण लेकर देखिए—

(१) धूलि की ढेरी में अनजान छिपे हैं मेरे मधुमय गान

(२) रुदन, क्रीड़ा, आलिंगन।
शशि की सी ये कलित कलाएँ किलक रही हैं पुर पुर में।

(३) मर्म पीड़ा के हास।

(४)अहह! यह मेरा गीला गान

(५) तड़ित सा, सुमुखि! तुम्हारा ध्यान
प्रभा के पलक मार, उर चीर
गूढ़ गर्जन कर जब गंभीर।

(६) लाज में लिपटी उषा समान।

घनानन्द की वाग्विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए अब ऊपर के उद्धरणों के मोटे टाइपों में छपे प्रयोगों की लाक्षणिक प्रक्रिया देखिए—

(१) धूलि का ढेरी—तुच्छ या असार कहा जानेवाला संसार। मधुमय गान=मधुमय गान के विषय=मधुर और सुन्दर वस्तुएँ। कलाएँ किलक रही हैं=ज़ोर से हँस रही हैं=आनन्द का प्रकाश कर रही है। (३) पीड़ा के हास=पीड़ा का विकास या प्रसार। (विरोध का चमत्कार) (४) गीला गान=आर्द्रहृदय या अश्रुपूर्ण व्यक्ति की वाणी। (सामान्य कथन से जो गुण व्यक्ति का कहा जाता है वह गान का कहा गया; विशेषण-विपर्य्यय) (५) प्रभा के पलक मार=पल पल पर चमककर। गूढ़ गर्जन=छिपी हुई हृदय की धड़कन (६) लाज=लज्जा से उत्पन्न ललाई।

इन प्रयोगों का आधार या तो किसी न किसी प्रकार की साम्य-भावना है अथवा किसी वस्तु का उपलक्षण या प्रतीक के रूप में ग्रहण। दोनों बातें कल्पना ही के द्वारा होती हैं। उपलक्षणों या प्रतीकों का एक प्रकार का चुनाव है जो मूर्त्तिमत्ता, मार्मिकता या आतिशय्य आदि की दृष्टि से होता है—जैसे, शोक या विषाद के स्थान पर अश्रु हर्ष और आनन्द के स्थान पर हास, प्रिय-प्रेमी के लिए मुकुल-मधुप, यौवन-काल