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चिन्तामणि

तो क्रोध का, नहीं तो अपनी तुच्छता का अनुभव होता है। दूसरों के चित्त में हमारे प्रति जो प्रेम या प्रतिष्ठा का भाव रहता है उसका ह्रास, किसी कुचक्र के साथ अपना नाम मात्र का सम्बन्ध समझकर भी, हम समझे बिना नहीं रह सकते। जब स्थिति ऐसी होती है कि इस ह्रास का न हम समाधान द्वारा निराकरण कर सकते हैं, न क्रोध द्वारा प्रतीकार, तो सिवा इसके कि हम अपनी हीनता का अनुभव करें, और कर ही क्या सकते है? भरत को इसी दशा में पाकर राम ने उन्हे समझाया था कि—

तात जाय जनि करहु गलानी।
ईस अधीन जीव-गति जानी॥
तीनि-काल त्रिभुवन मत मोरे।
पुन्यसलोक तात तर तोरे॥
उर आनत तुम पर कुटिलाई।
जाइ लोक परलोक नसाई॥

जिसने इतनी बुराई की वह मेरी माता है, इस भावना से जो लज्जा भरत को थी उसे दूर करने के लिए ही यह आगे का वचन है—

दोष देहिं जननिह जड़ तेई।
जिन गुरु-साधु-सभा नहिं सेई॥

इस प्रकार दोष देनेवालो से दोषोद्भावना द्वारा अनधिकार का आरोप करके माता के दोष का परिहार किया गया है।

उत्तम कोटि के मनुष्यों को अपने दुष्कर्म पर ग्लानि होती है और मध्यम कोटि के मनुष्यों को अपने दुष्कर्म के किसी कडुए फल पर। दुष्कर्म के अनेक अप्रिय फलों में से एक अपमान है, जिसे सह कर अपनी तुच्छत्ता का अनुभव किए बिना लोग प्रायः नहीं रहते। जिन्हें अपने किसी कर्म की बुराई का ध्यान आपसे आप नहीं होता उन्हें ध्यान कराने का श्रम उसकी बुराई का विशेष अनुभव करनेवाले, अपनी बुराई का सब ध्यान, अपने हाथ का सब धन्धा, छोड़कर उठाते है। इस श्रम से दूसरों के लिए उनकी बुराई का जो फल पैदा किया जाता है उसकी