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लज्जा और ग्लानि

विरसता और कटुता कभी कभी अत्यन्त ग्लानिकारिणी होती है। पर आँख खुलने पर जो आँख खोलनेवालों को ही देख सकें, उनकी आँख की दुरुस्ती में बहुत कसर समझनी चाहिए। अपमान या हानि की जो ग्लानि उस अपमान या हानि ही तक ध्यान को ले जाय—उसके कारण तक न बढ़ाए—वह बुराई के मार्ग पर चल चुकनेवालों का थोड़ी देर के लिए पैर थास या बल तोड़ सकती है, पर उनका मुँह दूसरी ओर मोड़ नहीं सकती। अपमान का जो दुःख केवल इन शब्दों में व्यक्त किया जाता है कि 'हा! हमारी यह गति हुई!' उससे अपमान करनेवालों का काम तो हो जाता है पर दुःख करनेवालों का कोई मतलब नहीं निकलता। जो ग्लानि हमसे यह कहलाए कि 'यदि हमने ऐसा न किया होता तो हमारी यह गति क्यों होती?' वही पश्चात्ताप की ग्लानि है, जिससे हमारा हृदय पिघलकर किसी नए साँचे में डलने के योग्य हो सकता है अतः काई ऐसी बुराई करके जिससे चार आदमियों का कष्ट पहुँचा हो, हम यह समझने में कि 'हमने बुरा किया' जितनी ही जल्दी करते हैं उतने ही मज़े में रहते है क्योंकि बहुधा ऐसा होता है कि जिन्हें कष्ट पहुँचा रहता है वे हमारी इस समझ का पता पाकर संतुष्ट हो जाते हैं। अपनी किसी बुराई को बन्ध्या मानकर मन का खटका छुड़ानेवाले धोखा खाते हैं।

अपमान से जो ग्लानि होती है वह दो भावों के आधार पर—'हम ऐसे तुच्छ हैं।' और 'हम ऐसे बुरे हैं।' इन दोनों भावों को कभी कभी लोग बड़ी फुरती और सफ़ाई से रोकते हैं। अपनी तुच्छता का भाव अधिकांश में अपनी असामर्थ्य और दूसरे की सामर्थ्य का भाव है। हम इतने असमर्थ हैं कि दूसरे हमारा अपमान कर सकते हैं, इस भाव से निवृत्ति तो लोग चट अपनी सामर्थ्य का परिचय देकर—अपमान करनेवाले का अपमान करके—कर लेते हैं। रहा अपने दोष या बुराई का भाव; उससे छुटकारा लोग दोष देनेवालों में दोष ढूँढ़कर कर लेते हैं। इस प्रकार अपनी सामर्थ्य और दूसरे के दोष की भावना मन में भरकर वे अपनी तुच्छता और बुराई के अनुभव