पृष्ठ:चिंतामणि.pdf/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६५
लज्जा और ग्लानि

दण्डवत् किए ही भागना पड़ेगा जिसकी शायद हमें बहुत दिनों तक ग्लानि रहे।

लज्जा का एक हलका रूप सङ्कोच है जो किसी काम को करने के पहले ही होता है। कर्म पूरा होने के साथ ही उसका अवसर निकल जाता है, फिर तो लज्जा ही लज्जा हाथ रह जाती है। सामान्य से सामान्य व्यवहार में भी सङ्कोच देखा जाता है। लोग अपना रुपया माँगने में सङ्कोच करते है, साफ़-साफ़ बात कहने में सङ्कोच करते हैं, उठने-बैठने में सङ्कोच करते हैं, लेटने में सङ्कोच करते हैं, खाने-पीने में सङ्कोच करते है, यहाँ तक कि एक सभा के सहायक मंत्री है जो कार्य-विवरण पढ़ने में सङ्कोच करते हैं। सारांश यह कि एक बेवकूफी करने में लोग सङ्कोच नही करते और सब बातों में करते हैं। इससे उतना हर्ज भी नहीं क्योकि बिना बेवकूफ हुए बेवकूफी का बुरा लोग प्रायः नहीं मानते। इतनी क्रियाओं का प्रतिबन्धक होने के कारण सङ्कोच शील का एक प्रधान अंग, सदाचार का एक सहज साधक और शिष्टाचार का एकमात्र आधार है। जिसमें शील सङ्कोच नहीं वह पूरा मनुष्य नहीं। बाहरी प्रतिबन्धों से ही हमारा पूरा शासन नहीं हो सकता—उन सब बातों की रुकावट नहीं हो सकती जिन्हें हमें न करना चाहिए। प्रतिबन्ध हमारे अन्तःकरण में होना चाहिए। यह आभ्यन्तर प्रतिबन्ध दो प्रकार का हो सकता है—एक विवेचनात्मक जो प्रयत्नसाध्य होता है, दूसरा मनःप्रवृत्त्यात्मक जो स्वभावज होता है। बुद्धि-द्वारा प्रवृत्ति ज़बरदस्ती रोकी जाती है, पर लज्जा, सङ्कोच आदि की अवस्था में प्राप्त होकर प्रवर्त्तक मन आपसे आप रुकता है—चेष्टाएँ आप से आप शिथिल पड़ती हैं। यही रुकावट सच्ची है। मन की जो वृत्ति बड़ों की बात का उत्तर देने से रोकती है, बार बार किसी से कुछ माँगने से रोकती है, किसी पर किसी प्रकार का भार डालने से रोकती है, उसके न रहने से भलमनसाहत भला कहाँ रहेगी? यदि सब की धड़क एकबारगी खुल जाय तो एक ओर छोटे मुँह से बड़ी बड़ी बातें निकलने लगें, चार दिन के मेहमान तरह-तरह की फरमाइशें करने लगें,

फा॰ ५