पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१००

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لم काव्य में रहस्यवाद का कैसा सुन्दर आभास मात्र है । 'वाद' को कोई विस्तार नही है । I inade a nosegay • ••• • ••• Kept these imprisoned children of the Hours Within my hand, -and then elate and gay, I hastened to the spot whence I had come, That I might there present it-O' to Whom? | इस प्रकार की स्वाभाविक और सच्ची रहस्य-भावना का माधुर्य प्रत्येक सहृदय स्वीकार करेगा । पर जव किसी वाद के सहारे वेदना की तरी पर सवार होकर अन्धड़ और अन्धकार के बीच असीम की ओर यात्रा होगी, सामने अलौकिक ज्योति फूटती दिखाई देगी, लोकलोकान्तर और कल्प-कल्पान्तर के समाहृत अरुणोदय में असीमससीम के मिलने पर विश्व-हृदय की तन्त्री के सब तार झङ्कारोत्सव करने लगेंगे, आप ही आप को खोजने का स्वप्न टूटने पर अट्टहास होने लगेगा, तब सहृदयता और भावुकता तो कोई और ठिकाना ढूंढेगी , हाँ, अज्ञानोपासना सिद्धता को मुकुट या पैगम्वरी का चौगोशिया ताज पहनाने के लिए ठहरे तो ठहरे। सारांश यह कि जहाँ तक अज्ञात की ओर अनिश्चित सङ्केत मात्र रहता है वहाँ तक तो प्रकृत काव्यदृष्टि रहती है पर जब उसके आगे बढ़कर उस अज्ञात को अव्यक्त और अगोचर कहकर उसका चित्रण होने लगता है, उसका पूरा ब्योरा दिया जाने लगता है, तब लोकोत्तर दिव्यदृष्टि का दावा सो पेश होता हुआ जान पड़ता है। इस दावे का हृदय पर वड़ा बुरा प्रभाव पड़ता है । एक ओर–ओता था पाठक के पक्ष मे--तो इससे अज्ञान-प्रियता का अनुरञ्जन होता है , दूसरी ओर–कवि के पक्ष में--उस अज्ञान-प्रियता से लाभ उठाकर अहङ्कार-तुष्टि का अभ्यास पड़ता है । पहुँचे हुए सिद्ध या ब्रह्मदर्शी बननेवाले बहुत से साधु शास्त्रो की सुनी-सुनाई बातो को उनकी