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चिन्तामणि

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चिन्तामणि Come near, that no more blunded by man's fate, I lind under the boughs of love and had hate, In all poor foolish things that live a day, Eternal bcauty wandering on her way. “लाल गुलाब, गर्वीले गुलाब, मेरे सव दिन के उदास गुलाब ! पास आओ, जिसमें मनुष्य की गति देखकर मुझमें जो अन्धापन आ जाता है वह दूर हो और मैं राग और द्वेप की नाना शाखाओं के तले बैठा हुआ बेचारी इन सब क्षण भर रहनेवाली मुग्ध वस्तुओं में अनन्त सौन्दर्य की अनन्त गति का दर्शन करू ।” | कविता के मूल में भाव या मनोविकार ही रहते है, काव्य की आत्मा रस ही है, यह बात इतनी पुरानी पड़ गई है कि नवीनता के बहुत से अभिलाषी, तथ्यातथ्य की बहुत परवा छोड, इसके स्थान पर कोई और बात कहने का प्रयत्न करते आ रहे हैं। जगन्नाथ पण्डितराज ने रस के स्थान पर “अर्थ की रमणीयता ग्रहण की : पर रमणीयता भी रसात्मकता से सम्बद्ध है। मन का रमना किसी भाव में लीन होना ही है। हृदय के प्रभावित होने का नाम ही रसानुभूति हैं। विलायती साहित्य में कल्पना' शब्द की बड़ी धूम देख । कुछ लोग कभी-कभी कह देते हैं कि रसात्मक वाक्य काव्य होता है - इस लक्षण में कल्पना-पक्ष बिल्कुल छूट गया है, केवल भाव ( Einiotion ) पक्ष आया है। पर जो लोग रस-पद्धति को अच्छी • तरह समझते है और आधुनिक मनोविज्ञान द्वारा निर्पित भाव । Emotion, Se-1 • ent) के स्वरूप से भी परिचित है, उनके निकट इस का | नहीं है • वह एक दृत्ति-चक्र (System) (१ ), अनुभूति ( Feeling) 'Tendlency ), शरीरधर्म हमारे यहाँ रस निष्पन्न ।