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चिन्तामणि

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६८ चिन्तामणि दूसरे प्रकार के प्रभाव को मध्यम स्थान प्राप्त है। पूर्णरस की अनुभूति प्रथम प्रकार का प्रभाव है। जिन्हें साहित्य में स्थायी भाव कहते है केवल उन्हीं की अनुभूति पूर्णरस के रूप में होती है । वे ही ऐसे भाव है जो व्यजित होने पर पाठक या श्रोता के हृदय में भी उत्पन्न होते हैं । यह नहीं है कि चाहे जिस भाव का विभाव, अनुभाव और सञ्चारी द्वारा विधान किया जाय वह पूर्णरस के रूप में अनुभूत होगा । अमूया वा ब्रीड़ा को यदि हम स्वतन्त्र भाव के रूप में लेकर उसका विभाव, अनुभाव और सञ्चारी के द्वारा वर्णन करे, तो भी सुननेवाले को ईष्र्या या लज्जा का अनुभव न होगा । इनकी अच्छी से अच्छी व्यञ्जना को भी वह इसी रूप में ग्रहण करेगा कि हाँ ! बहुत ठीक है। ईष्र्या या ब्रीड़ा में ठीक ऐसे ही वचन मुंह से निकलते हैं, ऐसी ही चेष्टाए होती हैं, ऐसी ही वृत्ति हो जाती है। सारांश यह कि श्रोता या पाठक भाव की व्यञ्जना का अनुमोदन मात्र करेगा ; उस भाव की अनुभूति में मग्न न होगा । | पूर्णरस की अनुभूति--अर्थात् जिस भाव की व्यञ्जना हो उसी भाव में लीन हो जाना—क्यों उत्तम या श्रेष्ठ है, इसका भी कुछ विवेचन कर लेना चाहिए । काव्यदृष्टि में जब हम जगत् को देखते हैं तभी जीवन की प्रकृत रूप प्रत्यक्ष होता है। जहाँ व्यक्ति के भावो के पृथक् विषय नहीं रह जाते, मनुष्यमात्र के भावों के आलम्बनों में हृदय लीन हो जाता है, जहाँ हमारी भाव-सत्ता का सामान्य भाव-सत्ता में लय हो जाता है, वही पुनीत रसभूमि है। आश्रय के साथ वह तादात्म्य, आलम्बन का वह साधारणीकरण, जो स्थायीभावों में होता है, दूसरे भावो में चाहे वे स्वतन्त्र रूप में भी आएँ—नहीं होता। दूसरे भावो की व्यञ्जना को हम अनुमोदन मात्र करते हैं। इस अनुमोदन में भी रसात्मकता रहती है, पर उस कोटि की नहीं है। आश्रय के साथ तादात्म्य और आलम्बन के साथ साधारण