पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/११

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चिन्तामणि

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चिन्तामणि अर्थमात्र समझकर काम चलाया जाय । व्यवहार में तथा शह स्रोम इसी दूसरे प्रकार के सदेत-ग्रह से काम चलता है। वहाँ एक-एक प के वाच्यार्थ के रूप पर अड़ते चलने की फुरसत नहीं रहती । पर का के दृश्य-चित्रण में सत-प्रह, पहले प्रकार का होता है । उसमे कवि के लक्ष्य ‘विम्त्र-ग्रहण' कराने का रहता है, केवल अर्थ-ग्रहण कराने के नहीं । वस्तुओं के रूप और आस-पास की परिस्थिति का ब्योर जितना ही स्पष्ट या स्फुट होगा उतना ही पूर्ण विम्ब-ग्रहण होगा, औं उतना ही अच्छा दृश्य-चित्रण कहा जायगा । 'विम्ब-ग्रहण' कराने के लिए चित्रण काव्य का प्रथम विधान है। जो ‘विभाव' में दिखाई पड़ती है। काव्य में ‘विभाव' मुख्य समझन चाहिए। भावों के प्रकृत आधार या विषय को कल्पना द्वारा पूर्ण हो यथातथ्य प्रत्यक्षीकरण कवि का पहला और सबसे आवश्यक कार है। यों तो जिस प्रकार विभाव, अनुभाव आदि में हम कल्पना क प्रयोग पाते है उसी प्रकार उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलङ्कारो में भी ; प जव कि रस ही काव्य मे प्रधान वस्तु है तब उसके संयोजको । कल्पना का जो प्रयोग होता है वही आवश्यक और प्रधान ठहरत है । रस का आधार खड़ा करनेवाला जो विभावन व्यापार है वह कल्पना का सबसे प्रधान कार्यक्षेत्र है। किन्तु वहाँ उसे यो ही उड़ा भरना नहीं होता ; उसे अनुभूति या रागात्मिका वृत्ति के आदेश पर चलना पड़ता है। उसे ऐसे स्वरूप खड़े करने पड़ते है जिनके द्वार रति, हास, शोक, क्रोध इत्यादि को स्वयं अनुभव करने के कारण कवि जानता है कि श्रोता या पाठक भी उनका वैसा ही अनुभः करेगे। अपनी अनुभूति की व्यापकता के कारण मनुष्यमाः की अनुभूति तथा उसके विषयो को अपने हृदय में रखनेवाले ही ऐसे स्वरूपो को अपने मन में ला सकते है, और कवि कहे जाने के अधि कारी बन सकते है।