पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

काव्य मे रहस्यवाद १०५ तो हमारा कहना यही होगा ; यह नहीं कि “हे फूट से अलग हुए अभागे भारतवासियो । एकता क्यो नही रखते ? यदि तुम एक हो जाओ तो भारत का भाग्योदय हो जाय ।' अभिव्यञ्जना-वादियो के काव्य-सम्बन्धी उपर्युक्त कथन में जो वास्तविक तथ्य है उसकी और हमारे यहाँ के प्राचार्यों ने अपने ढंग पर पूरा ध्यान दिया है । सावादियो ने रस को और ध्वनिवादियों ने काव्यवस्तु को व्यंग्य कहा है। उनके अनुसार रस की यो वस्तु की व्यञ्जना होनी चाहिए, अभिधा द्वारा सीधे कथन नहीं । “रस व्यंग्य होता है" यह कथन कुछ भ्रामक अवश्य है । इससे यह भ्रम होता कि जिस भाव की व्यञ्जना होती है वही भाव रस है। यही बात वस्तु-व्यञ्जना के सम्बन्ध में भी समझिए । “व्यञ्जना में अर्थात् व्यञ्जक वाक्य मे रस होता है यही कहना ठीक है और यही समझा ही जाता है । केशव की यह उक्ति लीजिए--- | कूर कुठार निहारि तज्यो, फल ताको यहै जो हियो जरई । अाजु ते तो कहूँ, वधु । महाधिक, छत्रिन चै जो दया करई ।। यह उक्ति ही कविता है , न कि परशुराम ने क्रोध किया यह व्यंग्य था अभिप्राय । व्यञ्चक वाक्य ही काव्य होता है , व्यंग्य भाव या वस्तु नहीं । “व्यंग्य' शब्द के प्रयोग में कहीं-कहीं गड़बड़ी होने पर भी इस बात को सब लोग जानते है । पर इसका मतलब यह नही कि व्यंग्य अर्थ या लक्ष्य अर्थ का कोई विचार ही नहीं होता। व्यञ्जक या लक्षक वाक्य का जब तक व्यंग्यार्थ या लक्ष्यार्थ के साथ सामञ्जस्य न होगी तब तक वह उन्मत्त प्रलाप या जान-बूझकर खड़ा किया हुआ धोखा ही होगा । 'अभिव्यञ्जनावाद' अनुभूति या प्रभाव का विचार छोड़ केवल वाग्वैचित्र्य को पकड़कर चला है, पर वाग्वैचित्र्य का हृदय की गम्भीर वृत्तियो से कोई सम्वन्ध नहीं । वह केवल कुतूहल उत्पन्न करता है ।