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चिन्तामणि

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चिन्तामणि भिन्न भावो में लीन करनेवाली, रमानेवाली वस्तु हैं। अतः वही वक्रोक्ति ( वक्रोक्ति अलङ्कार नहीं ; उक्ति का वॉकपन या अनूठापन ), वही वचन-भङ्ग जो किसी न किसी भाव या मनोवृत्ति द्वारा प्रेरित होगी, काव्य के अन्तर्गत होगी । ऐसी वस्तु-व्यञ्जना जिसकी तह में कोई भाव न हो, चाहे कितने ही अनूठे ढंग से की गई हो, चाहे उसमें कितना ही लाक्षणिक चमत्कार हो, प्रकृत कविता न होगी, सूक्ति मात्र होगी । सारांश यह कि भाव या मनोविकार की नीचे पर ही कविता की इमारत खड़ी हो सकती हैं । कुनृहुल भी एक मनोवृत्ति है, पर वह अकेले काव्य का प्राधार नहीं हो सकती । तमाशा देखना और कविता सुनना एक ही बात नहीं है । । । | इस अभिव्यञ्जनावाद' के प्रभाव से मूर्त विधान का बड़ा ही दुरुपयोग होने लगा हैं। अँगरेजी में तो कम, पर बॅगला में--- जो हर एक विलायती ताल-सुर पर नाचने के लिए तैयार रहती है-- यह बात बहुत भी हद तक पहुँची । कही लालमा मधुपात्र लिए हत्तन्त्री के नीरव तार झनझना रही है ; कहीं स्मृति-वेदना करवटे बदलकर ऑखे मल रही है इत्यादि-इत्यादि । इस प्रकार लड़को के खेल से निराधार विधान वहाँ चल पड़े, जिनकी नकल हिन्दी में भी बड़ी धूम से हो रही है। ‘छायावाद' समझकर जो कविताएँ हिन्दी में लिखी जाती है उनमें से अधिकांश का ‘छायावाद' या 'रहस्यवाद से कोई सम्बन्ध नहीं होता। उनमें से कुछ तो विलायती 'अभिव्यञ्जनवाद' के आदेश पर रची हुई बँगला कविताओं की नकल पर, और कुछ अँगरेजी कविताओं के लाक्षणिक-चमत्कारपूर्ण वाक्य शब्दप्रति-शव्द उठाकर, जोड़ी जाती है । इनके जोड़नेवाले यह नहीं जानते कि 'छायावाद' या 'रहस्यवाद' शब्द काव्यवस्तु ( Matter ) को सूचक है, अतः जहाँ काव्यवस्तु में कोई ‘वाद नहीं है, केवल व्यञ्जनाशैली के चैचित्र्य का अनुकरण है, वहाँ अभिव्यञ्जनवाद, की नकल