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चिन्तामणि

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११२ चिन्तामणि इसी प्रकार सच्चे कवियों की अनुभूति का आभास बहुत कुछ उनकी वस्तु-योजना की शब्दभङ्गी में ही मिल जाता है । भावों के लिए आजम्बन प्रारम्भ में ज्ञानेन्द्रिय उपस्थित करती हैं; फिर ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त सामग्री से कल्पना उनकी योजना करती है । अतः यह कहा जा सकता है कि ज्ञान ही भाव के सच्चार के लिए मार्ग खोलता है । ज्ञान-प्रसार के भीतर ही भाव-प्रसार होता है । आरम्भ में मनुष्य की चेतन-सत्ता इन्द्रियज ज्ञान की समष्टि के रूप में ही अधिकतर रही । पीछे यो-यो सभ्यता बढ़ती गई है यो-यो मनुष्य की ज्ञान-सत्ता बुद्धि-व्यवसायात्मक होती गई है। अब मनुष्य का ज्ञानक्षेत्र बुद्धि-व्यवसायात्मक या विचारात्मक होकर बहुत विस्तृत हो गया । अतः उसके विस्तार के साथ हमे अपने हृदय का विस्तार भी बढ़ाना पड़ेगा । विचारो की क्रिया से वैज्ञानिक विवेचन और अनुसन्धान द्वारा उद्भादित परिस्थितियो और तथ्यों के मर्मस्पर्शी पक्ष का मूर्त और सजीव चित्रण भी-उसका इस रूप में प्रत्यक्षीकरण कि वह हमारे किसी भाव का आलम्बन हो सके–कवियो का काम होगा। ये परिस्थितियाँ बहुत ही व्यापक होगी, ये तथ्य न जाने कितनी वातो की तह मे छिपे होगे । यदि अत्याचार होगा तो उसका फैलाव औरंगजेब के अत्याचार का सा न होगा ; रावण के अत्याचार का सा होगा । हाहाकार होगा तो जगद्व्यापी होगा । हाय होगी तो पृथ्वी के एक कोने से दूसरे कोने तक होगी ; पर एक हाय करनेवाला दूसरे हाय करनेवाले से इतनी दूर पर होगा कि सम्मिलित हाय की दारुणता केवल बाहरी ऑखो की पहुँच के बाहर होगी। यदि प्राणियो की किसी सामान्य प्रवृत्ति का चित्रण होगा, तो सामग्री कीटाणुओ की दुनिया तक से लाई जा सकती है। जगत् रूपी घन-चक्कर और गोरखधन्धे की महत्ता और जटिलता से चकित होने की चाह में हम