पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१२०

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काव्य में रहस्यवाद् अपनी अन्तर्दृष्टि के सामने एक ओर अणुओ परमाणुओ-और दूसरी ओर ज्योतिष्क पिण्डो के भ्रमण-चक्रो तक को ला सकते है। रूखे और (चाह्य करणो को ) अगोचर को सरस और गोचर रूप में लाने का व्यवसाय काव्यक्षेत्र में बढ़ेगा । ये गोचर रूप झूठे रूपक न होगे , किसी तथ्य के मार्मिक मूर्त उदाहरण होगे ) कितने गूढ़, ऊँचे और व्यापक विचारों के साथ हमारे किसी भाव या मनोविकार का संयोग कराया जा सका है, कितने भव्य और विशाल तथ्यों तक हमारा हृदय पहुँचाया जा सका है, इसका विचार भी कवियों की उच्चता स्थिर करने में हुआ करेगी । काव्य के सम्बन्ध में भाव और कल्पना, ये दो शब्द बराबरू सुनते-सुनते कभी-कभी यह जिज्ञासा होती है कि ये दोनो समकक्ष हैं। या इनमे कोई प्रधान है। यह प्रश्न, या इसका उत्तर, जरा टेढ़ा है, क्योकि रसकाल के भीतर इनका युगपद् अन्योन्याश्रित व्यापार होता है । रस की स्थिति श्रोता या पाठक में मानी जाती है। अतः श्रोता था पाठक की दृष्टि से यदि विचार करते हैं तो उसमे सहृदयता या भावुकता अधिक अपेक्षित होती है , कल्पना-क्रिया कम । कवि की विधायक कल्पन रस की तैयार सामग्री उसके सामने रख देती है। कवि-कर्म में कल्पना की बहुत आवश्यकता होती है, पर यह कल्पना विशेष प्रकार की होती है, इसकी क्रिया कवि की भावुकता के अनुरूप होती है। कवि अपनी भावुकता की तुष्टि के लिए ही कल्पना को रूपविधान में प्रवृत्त करता है । रस की प्रतीति पूर्ण व्यञ्जना होने पर ही, काव्य के पूर्ण हो जाने पर ही, मानी गई है , व्यञ्जना के पहले नहीं । अतः कवि अपनी स्वभावगत भावुकता की जिस उमङ्ग में रचना करने में प्रवृत्त होता है और उसके विधान में तत्पर रहता है, उसे येदि हम कुछ कहना चाहे तो रस-प्रवणता या रसोन्मुखता का सकते हैं।