पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१२२

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काव्य में रहस्यवाद् ११५. वस्तु के ऐसे विवरणो में अन्तर्दृष्टि रमाना चाहते हैं जिनसे वह भाव उद्दीप्त रहे , ऐसी उक्तियाँ सुनना चाहते हैं जो उस भाव द्वारा प्रेरित या अनुप्राणित समझ पड़े ।। | "अभिव्यञ्जना ही कला या काव्य है इसका अर्थ यहाँ तक कभी नहीं घसीटा जा सकता कि व्यञ्जना या व्यञ्जक उक्ति से भिन्न काव्यानुभूति कोई वस्तु ही नहीं । काव्यानुभूति ही वह प्रधान वृत्ति है जो व्यञ्जना की प्रेरणा करती है। बात यह है कि पाठक या ओता के पास कवि की अन्तर्वृत्ति तक पहुँचने का कोई अचूक साधन नहीं होता जिससे वह यह देख सके कि अनुभूति के अनुरूप व्यञ्जनी हुई है या नही । इससे वह व्यञ्जना या उक्ति से ही प्रयोजन रखता है। पर जब हम पूरे कवि-कर्म पर विचार करते हैं केवल उसके फल पर ही नहीं--तब उसके मूल में काव्यानुभूति की सत्ता माननी पड़ती है। यह दिव्य अनुभूति समय-समय पर थोड़ी-बहुत सबको हुआ करती है। इसका प्रधान लक्षण है अपने ख़ास सुख-दुःख, हानि-लाभ आदि से उत्पन्न न होना, अपनी शरीर-यात्रा से सम्बद्ध न होना । प्रेमियों के प्रेम-व्यापार, दुखियो के दुःख, अत्याचारियो की क्ररता देख-सुनकर जो रति, करुणा और क्रोध जाग्रत् होता है, छूटे हुए स्वदेश की, अतीत काल के दृश्यो की जो प्रीतिस्निग्ध स्मृति जाग्रत् होती है, लोकरक्षक और लोकरञ्जक महात्माओं के प्रति जिस श्रद्धा-भक्ति का उदय होता है, उन सबकी अनुभूति शुद्ध भावक्षत्र की अनुभूति है । जव तक इस प्रकार की अनुभूति में कोई लीन रहे, तब तक उस पर अव्यक्त काव्य का आवेश समझना चाहिए। रसानुभूति या काव्यानुभूति की उपर्युक्त विशेषता के कारण उसे लोकोत्तर, जीवन से परे आदि कहने की चाल चल पड़ी है। पर वास्तव में वह जीवन के भीतर की ही अनुभूति हैं; आसमान से उतरी हुई कोई वस्तु नहीं है । इसी प्रकार कविता और कवि की स्तुति में जो