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चिन्तामणि

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११६ चिन्तामणि बहुत से अलङ्कारपूर्ण वाक्य इधर कुछ दिनों से कहे, सुने और लिखे जाने लगे है, उन्होने अर्थशून्य शब्दों का एक ऐसा झूठा परदा खड़ा कर दिया है जिनके कारण काव्यभूमि बहुत कुछ अन्धकार में पड़ती जाती है । कविता स्वर्ग से गिरती हुई सुधाधारा है ; नन्दनवन के. कुसुमो से टपकी मकरन्द की वृंद है; अनन्त के दिव्य सङ्गीत की स्वर-लहरी है ; कवि इस लोक का जीव ही नहीं है; वह पार्थिव जीवन से परे है ; उसका एक दूसरा ही जगत् है; वह पैग़म्बर है, औलिया हैं, रहस्यदर्शी है-ऐसी-ऐसी लचर वात काव्य-समीक्षा के नाम से कही जाने लगी हैं। बुद्धि को रुग्ण करनेवाली, पापण्ड का प्रचार करनेवाली, यह हवा अँगरेजी से बँगला मे और बॅगला से हिन्दी में आई है। श्राज-कल मासिक-पत्रिकाओं में किसी कवि या काव्य की समीक्षा के वेश मे कभी-कभी बहुत सी ऐसी अर्थशून्य पदावली-जो अँगरेज़ी या बँगला से उठाई हुई होती हैं-छुपा करती है । निरर्थक इस शब्दों की आधी से ऊबकर एक सूक्ष्मदर्शी अँगरेज 2 समालोचक को यहाँ तक कहना पड़ा है कि भापी अभी तक उन सव वस्तुओं के स्वरूप को छिपाने ही में कृतकार्य हुई है जिनकी हम चर्चा किया करते हैं। * कविता के सम्बन्ध में कई प्रवाद जो कुछ दिनों से योरप में प्रचलित चले आ रहे है, उनकी नकल हिन्दी में भी इधर-उधर सुनाई पड़ने लगी है । इन प्रवाद में एक यह भी है कि “कला का उद्देश्य कला ही है” या “काव्य का उद्देश्य काव्य ही है। इस उक्ति के अनुसार कविता का क्षेत्र जीवनक्षत्र से बिल्कुल अलग है । कविता का विचार करते समय जीवन की चातों को तो लाना ही न चाहिए । - Language has succeeded until recently in luding from us almost all the things we talk about. -1. A, Richards: Principles of Literary Criticism