पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१२४

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काव्य में रहस्यवाद कल की कृति का मूल्य निर्धारित करने में बाहरी बातों के मूल्य का विचार व्यर्थ है 13* कला का तो अपना मूल्य अलग ही है। कलासम्बन्धी यह वाद सन् १८६६ ईसवी से फ्रांस में चला । साहित्यसमीक्षा के नए-नए वाद फ्रांस ही में सबसे अधिक उठा किए हैं। इस क्षेत्र में वही एक प्रकार से योरप को गुरु रहा है । अँगरेजी में उपर्युक्त मत' का बहुत स्पष्ट प्रतिपादन डाक्टर चैडले ( Dr. Bradley ) ने अपनी पुस्तक ( Oxford Lectures on Poetry ) में किया है। हर्ष की बात है कि इस मत का, तथा इसी प्रकार के और प्रचलित प्रवादो का, निराकरण रिचर्डस ( I A, Richards ) ने अपने “काव्य-समीक्षा के सिद्धान्त' में बहुत अच्छी तरह कर दिया है। " जो काव्यो का अनुशीलन और जनता पर उनके प्रभाव का अन्वीक्षण करते आ रहे हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि कविता जीवन ही से उत्पन्न है और जीवन के भीतर ही अपनी विभूति का प्रकाश करती है । उसे जीवन से विच्छिन्न बताना कहीं की बात कहीं लगाना है ।। हम कह चुके है कि योरप में जो साहित्यिक वाद या प्रवाद चलते हैं उनमें से अधिकतर प्रतिवाद की धुन में अर्थात् प्रतिवर्तन ( Reaction ) के रूप में उठते हैं। सबमें कोई स्थायी मूल्य या तत्त्व नहीं होता , होता भी है तो बहुत थोड़ा । इस से बहुत से 'वाद', जिनका कुछ दिनो तक फैरान रहता है, आगे चलकर हवा हो जाते हैं । विज्ञान के वादो में जिस ईमानदारी और सचाई से काम।

  • To appreciate a work of art we need bring with us nothing from life, no knowledge of its ideas and affairs, no familiarity with its emotions.

--Clive Bell "Art" * इस संत के विशेद विवरण और खण्डन के लिए देखिए हमारा “हिन्दी साहित्य का इतिहास ( पुस्तकाकार संस्करण )।