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चिन्तामणि

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१२० चिन्तामणि स्वरूप में ही कुछ न कुछ व्यञ्जना है । पर उनमें इतनी अधिक शक्ति के सञ्चय का कारण यह भी है कि वे कई सहस्र वर्षों से कम से कम भारतीय जनता की कल्पना के अन्न और भावो के विषय रहते आए हैं। वे परम्परागत प्रतीक है। काव्य में ऐसे ही प्रतीको का व्यवहार होता आया है और हो सकता है। यह तो प्रत्यक्ष है कि थोड़े से ही प्रतीक सार्वभौम हो सकते हैं । भिन्न-भिन्न देशों की परिस्थिति और संस्कृति के अनुसार प्रतीक भी भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं। ‘गुल-बुलबुल' से जिस भावना का संकेत फारसवाले को मिलता है। उस भावना का संकेत भारतवासी को नहीं ; ‘चातक' से जिस भावना का संकेत भारतवासी को मिलता है उस भावना का संकेत योरपीय को नहीं । क्रूस ( Cross ) से जैसी पवित्रता और स्वर्गीय शान्ति का संकेत एक ईसाई को मिलेगा, हिन्दू या बौद्ध को नही । प्रकृति के नाना रूपो को भिन्न-भिन्न देशों ने भिन्न-भिन्न भावो से देखा है । सघन वन, पर्वत आदि भारतीय या योरपीय हृदय को चाहे रमावे पर फारसी दृष्टिवाल को वे कष्ट या विपत्ति ही के सूचक होगे। अधिकतर कुहरे ग्रौर वली से आच्छन्न रहनेवाले योरप में चमचमाती धूप' आनन्द और सुख-समृद्धि का संकेत हो, पर भारत के लिए नहीं हो सकती है। ‘लिग्ध श्यामल घटा' में जो उदार और शीतल माधुर्य भारतीय देखता है, योरपीय नहीं, जाड़े की सन्ध्या कुछ मनहूस और उदामी लिए होती है ; इससे विलायतवाले उसे शोक और उदासी का प्रतीक माने तो ठीक है । पर हिन्दुस्तान मे जाड़ा बहुत थोड़े दिनो रहता है। यहाँ तो दिन की ऑख तिलमिलानेवाली चमक के पीछे सन्ध्या की मधुर आभा मृदुलता का संकेत करती है । हाँ ? 'अन्धकार' या 'अँधेरी रात शोक और उदासी का प्रतीक अवश्य मानी जाती है। जायसी ने रत्नसेन के परलोकवास पर अँधेरी रात ही ली है-- | सूरुज छपा रैनि होइ गई। पूनिउँ ससि जो अमावस भई ।