पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१३०

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१२३ काव्य में रहस्यवाद इस धारणा के अनुसार काव्य का लक्ष्य इस जगत् और जीवन से अलग हो जाता है। प्रकृति के जिन रूपो और व्यापारो का कवि सन्निवेश करेगा वे ‘प्रतीक' मात्र होगे । कवि की दृष्टि वास्तव में उन प्रतीकों के प्रति न मानी जाकर उन अज्ञात और परोक्ष शक्तियो या सत्ताओं के प्रति मानी जायगी जिनके वे प्रतीक होगे । यदि वे प्रकृति का वर्णन करे तो उनका अनुराग प्रकृति पर न समझना चाहिए ; प्रकृति के नाना रूपो के परदे के भीतर छिपी हुई अज्ञात और अव्यक्त सत्ता के प्रति समझना चाहिए । वे भरसक इस बात का प्रदर्शन करेंगे कि उनके भावोद्गार और उनके वर्णन व्यक्त और पार्थिव के सम्बन्ध में नहीं है, अव्यक्त और अपार्थिव के सम्बन्ध में हैं। समझनेवाले चाहे जो समझें। यदि कोई बावाजी किसी रमणी के प्रेम में उसके रूप-माधुर्य आदि का बड़े अनूठेपन के साथ वर्णन करके कहें कि मेरा प्रेम उसके व्यक्त भौतिक शरीर से—उसकी रूप-रेखा, वर्ण, चेष्टा आदि से—-नही है, बल्कि उस भौतिक शरीर के भीतर छिपी अव्यक्त आत्मसत्ता से है, जो नित्य, अनन्त और सर्वव्यापक है, तो कह सकते हैं। पर कहाँ तक लोग ऐसा समझेगे, यह वात दूसरी है। हाफिज़ के शराब और प्याले को सूफी चाहे जो कहें, पर बहुत से पहुँचे हुए विद्वान् उन्हे शराब और प्याला ही मानते हैं। बात यह है कि हृदय को कोई भाव यदि व्यञ्जित किया जायगा तो वह ज्ञात को ही लेकर होगा और गोचर के ही प्रति होगा । मनोविज्ञान की दृष्टि से यदि 'भाव' ( Emotion ) के स्वरूप पर विचार किया जाय, तो उसके अन्तर्गत ज्ञानात्मक अवयव को विशिष्ट विन्यास पाया जायगा । उसके विना भाव का स्वरूप ही न पूर्ण होगा । यदि यह कहा जाय कि ईश्वर को किसी ने नहीं देखा है, पर ईश्वर-भक्ति चराचर होती आई है और उसकी सचाई में कोई सन्देह नहीं हुआ।