पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१३४

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य १२७ के समान ही शैतानी सारसत्ता का आना-जाना भी रहता ही है । अपने सूक्ष्म रूप के कारण दोनो नित्य ही होगी । | यह सच जाने दीजिए। यह देखिए कि कल्पना की नित्यता के प्रतिपादन मे, उसे परमार्थिक सत्ता बनाने में, प्रकृति और कल्पना के प्रत्यक्ष सम्बन्ध में कितना विपर्यय करना पड़ा है। यह तो प्रत्यक्ष बात है कि कल्पना के भीतर जो कुछ रहता है या आता है वह प्रकृति के ही विशाल क्षेत्र से प्राप्त होता है। अतः जब तक हम किसी 'वाद' का सहारा न लें तब तक यही कहेंगे कि कल्पना में आए हुए रूप ही प्रकृति के नाना रूपो के प्रतिविम्व हैं, प्रकृति के रूप कल्पना के प्रतिबिम्ब नहीं । इस ‘कल्पना वाद’ का कोई आभास न तो वेदान्त के प्रतिबिम्ब बाद में है , न कांट से लेकर हेगल तक जर्मन दार्शनिकों के ‘प्रत्ययवाद’ ( Idealisin ) मे। ‘प्रत्ययवाद’ इस दृश्य गोचर जगत् को ही प्रत्यय या भावना ( Idea ) कहता है। यह ‘कल्पनावाद वास्तव में सूफियो के यहाँ से गया है, यह हम आगे चलकर दिखाएँगे। | सूफियो के कल्पनावाद की गन्ध पाकर ब्लेक ने, कुछ कुछ बर्कले ( Berkeley ) के इशारे पर ‘परम आत्मा' के समान दृश्य जगत् से परे ‘परम कल्पना का प्रतिपादन किया और मनुष्य कल्पना को उस ‘परम कल्पना' का अङ्ग या अंशलब्धि माना, प्रकृति के नाना रूप जिसकी छाया है। कल्पना को उसने इलाम बनाया और कवियो को खासे पैग़म्बर। इस प्रकार उसने काव्य के परम पुनीत क्षेत्र में पाषण्ड का रास्ता सा खोल दिया । साहित्य - पक्ष भी कुछ देखना चाहिए। रचना के समय कवि के हृदय में कल्पना के रूप में आलम्बन आदि रहते या आते ही हैं। जब कि यही काल्पनिक रूप ही वस्तुओ की सारसत्ता है, ब्रह्म का रूप हैं, तब अभिलाष की जगह कहाँ रही ? अभिलाष तो साक्षात्कार की इच्छा है । वह साक्षात्कार हो ही जाता है।