पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१२८
चिन्तामणि

________________

१२६ चिन्तामणि प्रकृति के क्षेत्र में जिनकी हम छाया मात्र देखने हैं उसे हम कल्पना में मूल रूप में देख ही लेते हैं। भली बुरी किसी प्रकार की कल्पना मन में प्राई कि ईश्वर का दर्शन हुआ । इस प्रकारे रहस्यवादी कवि के लिए नियोग-पज्ञ--जिसकी इतनी दूरारूढ़ व्यञ्जना हुआ करती है—रह ही न गया । । अत्र संयोग-पक्ष में व्यञ्जित भावों की सचाई की परीक्षा कीजिए। यह हम वार-चार कह चुके हैं कि कल्पना में आए हुए रूप प्रकृति ही के हैं, बाहर ही के हैं और गोचर हैं। कल्पना की सारी रूप-सामग्री बाय जगन की ही होती है । कल्पना उसकी केवल तरह-तरह की योजना किया करती है। प्रकृति के बाहरी रूप-रंग आदि हमें मुग्ध कर चुके रहते हैं तभी उनकी काल्पनिक योजना में हमारी वृत्ति रमती है। यदि कोई मनुष्य जन्म से ही एक घर में बंद रखा जाय, तो उसकी कल्पना में दीवारों और खंभे के सिवा और कुछ नहीं आ सकता है इससे सिद्ध है कि हमारे भाव वास्तव में वाह्य प्रकृति के गोचर रूप ही के प्रति होते हैं, इसी लिए कल्पना में उनकी छाया भी हमे भवि-मग्न करती है। हमारे हृदय को सीधा लगाव बाह्य प्रकृति के गोचर स्पो से ही होता है । इस दृष्टि से यदि देखा जाय तो रहस्यवादी जो कुछ सुन्दर, रमणीय और भव्य रूप-योजना करेगा वह वास्तव में था तो बाह्य प्रकृति के प्रेम द्वारा प्रेरित होगी अथवा प्रेम द्वारा प्रेरित ही न होगी । पर उसमें इस बात को स्वीकार करने का साहस ही नहीं होता। इससे पाठक के मन मे वह यह झूठी प्रतीति उत्पन्न करना चाहेगा कि उसके भाव इन छायात्मक रूपो के प्रति बिल्कुल नही हैं , इनके परे जो अगोचर और अव्यक्त पारमार्थिक सत्ता है उसके प्रति हैं। वह यह कहकर ही रह जाती तब तो कला के क्षेत्र में वैसी गड़बड़ी न होती । पर यह प्रतीति उत्पन्न करने के लिए वह अपनी रचना का स्वरूप भी कुछ