पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१४२

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काव्य मे रहस्यवाद् १३५ को हम उसकी छाया मानकर चलेंगे जिसके प्रति हमारा प्रेम उमड़ रहा है, तब वे रूप और व्यापार उद्दीपन मात्र होंगे। काव्य में उद्दीपन दो प्रकार के होते हैं----बाह्य और आलम्बनरात । यदि हम छाया को वस्तु के बाहर न मानकर, उसी का कुछ मानें, तो भी वह आलम्बनगत उद्दीपने मात्र होगी । इस प्रकार प्रकृति के साथ हमारा सीधा प्रेम-सम्बन्ध योरप के इस रहस्यवाद के काव्य में न माना जायगा । - यह समझ रखना चाहिए कि काव्यगत रहस्यवाद की उत्पत्ति भक्ति की व्यापक व्यञ्जना के लिए ही फारस, अरब तथा योरप में हुई जहाँ पैगम्बरी मतो के कारण मनुष्य का हृदय बँधा-बँधा अब रहा था । जिस प्रकार मनुष्य की बुद्धि का रास्ता रुका हुआ था, उसी प्रकार हृदय का भी । प्रकृति के प्रति भक्तो के भाव जिस हद तक और जिस गहराई तक जाना चाहते थे, नहीं जाने पाते थे। प्रकृति के मूर्त पदार्थों के प्रति अपने गहरे से गहरे भाव की व्यञ्जना पूरे धार्मिक या भक्त ऐसे ही शब्दों में कर सकते थे—उस परमात्मा की कारीगरी भी क्या ही अद्भुत है ; कैसे-कैसे रूप, कैसे-कैसे रंग उसने सजाए हैं !” अपने भावों को सीधे अर्पित करते हुए उन्हें नरपूजा, वस्तु-पूजा या मूर्ति-पूजा के पाप का ध्यान होता था । पर उक्त प्रकार की व्यञ्जन से ही मनुष्य की भावतुष्टि कहाँ तक हो सकर्ती थी ? यहूदियो और पुराने ईसाइयो में धर्मसम्बन्धी बातो को मूर्त रूप में प्रकट करने के लिए साध्यवसान रूयको (Allegories ) का प्रचार था। पर साध्यवसान रूपक एक भद्दा विधान है। इसी से अद्वैतवाद, सर्ववाद (Pantheism), प्रतिविम्बवाद आदि कई वादों का मिला-जुला सहारा लेकर उन्होने अपने हृदय की स्वाभाविक वृत्तियो के लिए गोचर भूमि तैयार की । उन्होंने प्रकृति के नाना रूप के साथ परमात्मा के कर्तृत्व-सम्बन्ध के स्थान पर थोड़े-बहुतं स्वरूप