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चिन्तामणि

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१४० चिन्तामणि शक्तिमयी, शीलमयी और सौन्दर्यमयी कला का प्रकाश करनेवाले के रूप में है। इसी लोकरक्षक और लोकरञ्जक रूप पर भारतीय भक्त मुग्ध होते आए है । गोस्वामी तुलसीदासजी से जब किसी ने पृछा कि आप कृष्ण की उपासना क्यों नहीं करते जो सोलह कला के अवतार है ? राम की उपासना क्यों करते हैं जो बारह ही कला के अवतार हैं ? तब उन्होने बड़े भोलेपन के साथ कहा कि “हमारे राम अवतार भी हैं, यह हमें आज मालूम हुआ ?” इस उत्तर द्वारा गोस्वामीजी ने भारतीय भक्ति का स्वरूप अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया । ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि यहाँ भक्तिकाव्य के क्षेत्र में भी अभिव्यक्तिवाद ही रहा ; रहस्यवाद, प्रतिविम्बवाद आदि नही । जो तुलसी, सूर आदि भारतीय पद्धति के भक्तों में भी रहस्यवाद् सुंघा करते हैं उन्हे रहस्यवाद के स्वरूप का अध्ययन करना चाहिए, उसके इतिहास को देखना चाहिए । व्यक्त व्यक्त, मूर्तामूर्त-ब्रह्म के इन दो रूप या पक्षो–में से भारतीय भक्तिरस के भीतर व्यक्त और मुर्त पक्ष ही, जिसका हृदय के साथ सीधा लगाव हैं, लिया गया। इस रसविधान में जगत् या प्रकृति ब्रह्म का रूप ही रही है ; छाया, प्रतिविम्व, आवरण आदि नहीं । जो मनोहर रूपयोजना सामने लाई जाती है, हृदय के भाव ठीक उसी के प्रति होते हैं; उसके भीतर (Inminainent) या उसके बाहर ( 71 anscendent ) रहनेवाले किसी हाऊ के प्रति नहीं । | यह पहले दिखाया जा चुका है कि यह योजना प्रकृति के रूप को लेकर ही होती है। कल्पना भी वाह्य जगत् के रूपो या उनके संवेदनों की छाया है। सीधे उन रूप से या रूपात्मक संवेदनो से हम प्रेम कर चुके रहते हैं तभी उनकी छाया अर्थात् कल्पना में हमारा हृदय रमता है । जगत् का यह व्यक्त प्रसार ही भाव के संचरण का वास्तविक क्षेत्र है। इससे अलग मनुष्य-कल्पना की कोई वास्तव सत्ता नहीं ;