पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१६

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य किस प्रकार यहाँ से वहाँ तक एक पंक्ति में चले गए हैं, लताओ को कैसा सुन्दर भण्डप सा बन गया है, कैसी शीतल, मन्द, सुगन्ध हवा चल ‘रही है उनका प्रेम कोई प्रेम नहीं-उसे अधूरा समझना चाहिए । चे प्रकृति के सच्चे उपासक नही । वे तमाशबीन हैं, और केवल अनोखापन, सजावट या चमत्कार देखने निकलते है। उनका हृदय मनुष्यप्रवर्तित व्यापारी में पड़कर इतना कुण्ठित हो गया है कि उससे उन सामान्य प्राकृतिक परिस्थितियों में जिनमे, अत्यन्त आदिम काल में मनुष्यजाति ने अपना जीवन व्यतीत किया था तथा उन प्राचीन मानवव्यापारो में जिनमें वन्य दशा से निकलकर वह अपने निर्वाह और रक्षा के लिए लगी, लीन होने की वृत्ति दब गई अथवा यों कहिए कि उनमे करोड़ो पीढ़ियों को पार करके आनेवाली अन्तस्संझावर्तिनी वह अव्यक्त स्मृति नहीं रह गई जिसे वासना या संस्कार कहते हैं । तड़क-भड़क, सजावट, रङ्गो की चमक-दमक, कलाओं की बारीकी पर भले ही मुग्ध हो सकते हो, पर सचे सहृदय नही कहे जा सकते । केंकरीले टीलो, ऊसर पटपरो, पहाड़ के ऊबड़-खाबड़ किनारो या चबूल-करौंदे के झाड़ों में क्या आकर्पित करनेवाली कोई बात नही होती है जो फारस की चाल के वर्गीचो के गोल चौखूटे कटाव, सीधी-सीधी रविशे, मेहँदी के बने भद्दे हाथी-घोड़े, काट-छाँटकर सुडौल किए हुए सरो के पेड़ों की कतारे, एक पङ्कि में फूले हुए गुलाब आदि देखकर ही वाह-वाह करना जानते हैं उनका साथ सच्चे भाबुक सहृदयो को वैसा ही दुःखदायी होगा जैसा सजनो को खलो का । हमारे * प्राचीन पूर्वज भी उपवन और वाटिकाएँ लगाते थे । पर उनका आदर्श कुछ और था। उनका आदर्श वहीं था जो अब तक चीन और योरप में थोड़ा-बहुत बना हुआ है। आजकल के पार्को मे हम भारतीय आदर्श की छाया पाते हैं। हमारे यहाँ के उपवन वन के प्रतिरूप ही होते थे। जो वनो में जाकर प्रकृति का शुद्ध स्वरूप और उसकी स्वच्छन्द