पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१६०

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काव्य में रहम्यवाद् में, उद्दीपन-सामग्री दिखाया करते हैं । इसीलिए स्वाभाविक रहस्यभावना वाले कवि चरित-काव्य या प्रबन्ध-काव्य का भी बराबर आश्रय लेते हैं, पर साम्प्रदायिक रहस्यवादी मुक्तको या छोटे-छोटे रचनाखण्डों पर ही सन्तोष करते हैं। प्रथम कोटि के कवियो दृश्य के संश्लिष्ट प्रसार के साथ-साथ विचार और भाव बड़ी दूर तक मिली हुई एक अखण्ड धारा के रूप में चलते हैं। पर दूसरी कोटि के कवियो में } यह अन्विति { Unity ) और मनोहर प्रसार अत्यन्त अल्प या नही के बराबर होता है। अतः इस दूसरी कोटि मे वड्सवर्थ और शेली क्या कोलरिज भी नहीं आ सकते जिनकी रचनाओं में बहुत ही संश्लिष्ट और जटिल दृश्य-विधान प्रस्तुत रूप मे---रहस्यवादियों के समान अप्रस्तुत रूप में नहीं—पूरी मूर्तिमत्ता के साथ दूर तक चलते “पाए जाते है । पाश्चात्य रहस्यवाद और पाश्चात्य स्वाभाविक रहस्य-भावना को थोड्या विस्तृत उल्लेख इसलिए करना पड़ा कि आजकल विचारों की पराधीनता के कारण योरप ही ‘जगत्' समझा और कहा जाता है। जो कुछ अव तक कहा गया उससे इतना तो स्पष्ट हो गया होगा कि योरप का सिद्धान्ती रहस्यवाद, जो व्लेक और ईट्स आदि में पाया जाता है, वह अरब-फारस के सुफियो के यहाँ से गया है। उसके पहले यहूदियों और कैथलिक सम्प्रदाय के ईसाइयों में जो रहस्यभावना प्रचलित थी वह ईश्वरवाद । Tlie1sna ) के भीतर थी । उसमें उस प्रेम-पूर्ण परम पिता के दया-दाक्षिण्य का आभास जगत् की नाना वस्तुओं और व्यापारों में रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखा जाता था । सूफियो - के रहस्यवाद में सर्ववाद (Pantheisnn) या अद्वैतवाद (Monism) के साथ प्रतिबिम्बवाद का योग था । वेदान्त में सर्ववाद और प्रतिबिम्बवाद एक ही नहीं है । सर्ववाद वेदान्त का पुराना रूप है। उसके उपरान्त विवर्त्तवाद, दृष्टि-सृष्टिवाद, अजीतवाद आदि जो कई वाद,