पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५४
चिन्तामणि

________________

१५४ चिन्तामणि ब्रहा और जगत के सम्बन्ध-निरूपण में, चले उनमें विम्व-प्रतिवम्वाद भी एक है । सर्ववाद का अभिप्राय यह है कि व्यक्तव्यक्त, मूत्तमूर्त, चिदचिन जो कुछ है सत्र ब्रह्म ही है । इस पुराने वाद के अनुसार जगत् जिस रूप में हमारे सामने है उसमे भी ब्रह्म ही का प्रसार है । प्रतिविम्त्रवाद के अनुसार जिस रूप में जगत् हमारे सामने है उस रूप में ब्रहा तो नहीं है, हाँ, उसकी छाया या प्रतिविम्ब अवश्य है। सूफियों ने आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में तो अद्वैतवाद ग्रहण किया, पर जगन और ब्रह्म के सम्बन्ध में प्रतिविम्ववाद को अपनाया । इस प्रतिविम्यवाद को लेकर सिद्धान्त-पक्ष में उन्होने उस 'कल्पनाबाद' की उद्भावना की जिसका वर्णन हम कर आए हैं और जिसे काव्य-पक्ष में लेकर ब्लेक आदि विलायती रहस्यवादियों ने साहित्य में एक विलक्षण आडम्बर खड़ा किया ! पर सूफियो ने अपने इस 'कल्पनावाद' को केवल ध्यान के लिए साधना या सिद्धान्तृ-पक्ष में ही रखा , काव्यक्षेत्र में नहीं घसीटा । काव्यक्षेत्र में उन्होने प्रतिनिम्त्रवाद के साथ अभिव्यक्तिवाद' का मेल किया जिससे उनकी कविता का रङ्ग वैसा ही स्वाभाविक और हृदयग्राही रही जैसा और कविता का । सृफ़ी कवि इस बाहर फैले हुए परदे के बीच-बीच में ही-छाया के बीच-बीच में ही अपने प्रियतम की झलक पाते रहे ; अपने भीतर की उलटी-सीधी, अव्यवस्थित कल्पना में नहीं । बाहरी जगत् के जिस रूप में उन्हें उसके सौन्दर्य, हास, औदार्य, प्रेम, क्रीड़ा इत्यादि की छटा का आभास मिला उसे वे पीछे कल्पना मे धारण करके भी रस-मग्न होते रहे । सारांरा यह कि सबके सामने फैले हुए बाह्य जगत के रूपो और व्यापारों में कुछ सच्चा आभास या सङ्केत पाकर, तवे वे उसके अनुरूप भावव्यञ्जना करते थे । इससे एक