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काव्य में रहस्यवाद


सामान्य भावभूमि पर प्राप्त होकर श्रोता या पाठक को हृदय भी उनके भाव को अपना लेता था। इसके विपरीत विलायती रहस्यवादी या उनके अनुयायी बाह्य जगत् की स्वच्छ और सच्ची अभिव्यक्ति से, जो मनुष्य मात्र के लिए कल्पना और भाव ग्रहण करने का सामान्य और अक्षय्य भाण्डार है, ऑखें मूँँदकर अपनी वात-पित्त-ग्रस्त कल्पना के कोने मे इकट्ठे किए हुए रोड़े अकस्मात् लुढ़काकार भावो के उन्मादभार से हलके होने का अभिनय किया करते हैं।

क्यों सूफी-भाव की कविता हृदय को विकसित करनेवाली होती है और विलायती रहस्यवाद की कविता का अनुकरण, या उसके अनुकरण का अनुकरण, हृदय की अनुभूति से दूर अपनी लपकझपक दिखाया करती है, इसके एक बड़े भारी कारण का पता तो ऊपर लिखी बातो से लग जाता है। पर कुछ और कारण भी हैं। योरप के काव्य-समीक्षा-क्षेत्र में प्रचलित ‘अभिव्यञ्जनवाद’(Expressiornism) और “कला का उद्देश्य कला ही है” का पूरा प्रभाव आधुनिक विलायती रहस्यवाद पर है। प्रभाव है क्या, कहना चाहे तो कह सकते हैं कि उक्त रहस्यवाद तीनो वादो के मेल से―ब्लेक द्वारा अङ्गीकृत ‘कल्पनाबाद’ के साथ ‘अभिव्यञ्जनवाद’ और ‘कला का उद्देश्य कला’-वाद के मेल से― संघटित है।

‘कल्पनाबाद’ के अवलम्बन से उत्पन्न विषमता का उल्लेख तो हो चुका। रहा पिछले दो वादो से ग्रस्त विलायती रहस्यवाद के अनुकरण, या अनुकरण के अनुकरण, का फल, वह भी सुगमता से अनुमान में आ जाता है। ‘अभिव्यञ्जनावाद’ की प्रवृत्ति वाग्वैचित्र्य या शब्दभङ्गी की ओर अधिक है। वाग्वैचित्र्य को उचित स्थान काव्य में क्या है, यह हम पहले दिखा आए हैं। यहाँ हिन्दी में उसके अनुकरण में जो और विशेष विरूपता दिखाई पड़ती है। उसी का यहॉ विचार करना है। योरपीय भाषाओं में वाग्वैचित्र्य का