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चिन्तामणि

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११६ चिन्तामणि विधान अधिकतर उन भोपाओ की लाक्षणिक चपलता के बल पर होता है । प्रत्येक भाषा की लाक्षणिक प्रवृत्ति उसके बोलनेवालो की अन्तःप्रकृति और संस्कारों के अनुरूप हुश्री करती है अतः एक भापा के लाक्षणिक प्रयोग दूसरी भापा में बहुत कम जगह काम दे सकते हैं। विलायती रहस्यवाद की कविताओं में बाहरी बिशेपता जो दिखाई पडी, वह थी लाक्षणिक प्रगल्भता और वाग्वैचित्र्य } अतः उसको अनुकरण सबसे पहले और अधिक उतावली से हुआ , इससे ठीक ढंग पर न चला । अधिकतर तो अनुकरण न होकर अवतरण हुआ जिससे वंचिच्य की तत्काल सिद्धि दिखाई पड़ी । एक भापा के पदविन्यास, लाक्षणिक प्रयोग अरि मुहावरे इत्यादि यदि शब्द-प्रति-शब्द दृग्नी भाषा में रग्ब दिए जाये तो यों ही एक तमाशा खड़ा हो जाता है । अँगरेजी के किसी एक साधारण पैराग्राफ का शव्द-प्रति-शब्द अनुवाद करके सामने रखिए और उसकी विचित्रता देखिए । तुर्की यो चीनी का ऐसा ही अवतरण सामने रखिए तो और वहार दिखाई दे। विलायती रहस्यवाद जव बङ्ग-भापा-साहित्य के एक कोने से होता हुआ हिन्दी में आ निकला तब उस पर दो भाषाओं के अजनबीपन की छाप दिखाई पड़ी । वहुत कुछ वैचित्र्य तो इस अजनबीपन में ही मिल गया । पर यदि लाक्षणिक विधान अपनी भाषा की गतिविधि के अनुसार होता तो क्या अच्छी बात होती । । अभिव्यञ्जनवाद के प्रसंग में हस दिखा चुके हैं कि उसके अनुकुल विलायती रचना के अनुकरण को हद से बाहर घसीटने के कारण छायावाद समझकर दिखी जानेवाली कविताओं में अप्रस्तुत वस्तुव्यापारी की बड़ी लंबी लड़ी के अतिरिक्त और कुछ सार नहीं होता । सव मिलाकर पढ़ने से न कोई सुसंगत और नूतन भावना मिलगी, न कोई विचारधारा और न किसी उद्भावित सूक्ष्म तथ्य के साथ भावसंयोग, जिसका कुछ स्थायी संस्कार हृदय पर रहे। अप्रस्तुत-विधान,