पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१६८

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काव्य में बाद १६१ जिन्होंने स्वर्गीय श्रीसत्यनारायण कविरत्न को कभी “या लकुटी अरु कामरिया' पढ़ते सुना है वे यह अवश्य समझ गए होगे कि किसी कविता की पूर्ण सौन्दर्य उसके सुन्दर लय के साथ पढ़े जाने पर ही प्रकट होता है। हाँ, ऊपर छोटे-बड़े चरणो की बात चली थी । छोटे-बड़े चरणो की यदि योजना करनी हो तो भिन्न-भिन्न छन्दो के दो-दो चरण रखते हुए बराबर चले चलने में हम कोई हर्ज नहीं समझते । यह हमारा प्रस्ताव मात्र हो । | लय भी तो एक प्रकार का बंधेज ही है। जब तक नाद-सौन्दर्य का कुछ भी योग कविता में हम स्वीकार करेगे तब तक बन्धेज कुछ न कुछ रहेगा ही । नाद-सौन्दर्य की जितनी मात्र आवश्यक समझी जायगी उसी के हिसाब से यह प्रतिबन्ध रहेगा । इस बात का अनुभव तो बहुत से लोगों ने किया होगा कि संस्कृत के मन्दाक्रान्ती, स्रग्धरा, मालिनी, शिखरणी, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा इत्यादि वर्ण-वृत्तों में नादसौन्दर्य की पराकाष्टा है पर उनका बन्धन वहुत कड़ा होता है । अतः भावधारा या विचारधारा पूरी स्वच्छन्दता के साथ कुछ दूर तक उनमें नहीं चल सकती । इसी से हिन्दी मे मात्रिक छन्दो का ही अधिक प्रचार रहा है । वर्ण-वृत्तों में सवैये इस लिए ग्रहण किए गए कि उनमें लय के हिसाब से गुरु-लघु का वन्धन बहुत कुछ शिथिल हो जाता है। जो कविता में उतने ही नाद-सौन्दर्य की जरूरत समझते हैं। जितना केवल लय ( Rythin ) के द्वारा सिद्ध हो जाता है उनसे हमें कुछ कहना नहीं है। हम अधिक की जरूरत समझते हैं और शायद बहुत से लोग ऐसा ही समझते हो। रही यह बात कि छन्द sense of its rythm, with so perfect a respect for its meaning, that if I were a wise man and could persuade a few people to learn the art, I would never open a book of verses again Ideas of Good and Evil.