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चिन्तामणि

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चिन्तामणि के बन्धन से विचार के पैर बँध जाते हैं और कल्पना के पर सिमट जाते हैं । इसकी जांच के लिए कवियों की रचना का इतना बड़ा मैदान ग्वुला हुआ है। हिन्दुस्तानी कवियों की बात छोड़िए-क्योकि विलायत की अंधाधुंध नकल से घबराकर ही यह सारा निवन्ध लिखा गया है—-अँगरेजी के कवियो को लीजिए ! क्या वड्सवर्थ और शैली की ऊँची से ऊँची कविताएँ छन्द और तुक से बँधी नही हैं ? क्या औरो की ऊँची से ऊँची छन्दोमुक्त कविता उनके टक्कर में रखी जा सकती है ? । अब तक जो कुछ लिखा गया उससे यह स्पष्ट हो गया होगा कि हिन्दी में श्री निकला हुआ यह 'छायावाद' कितनी चिलायती चीजो का मुरब्बा हैं। जैसा हम पहले दिखी आए हैं 'रहस्यवाद या 'छायावाद' काव्य-वस्तु ( Matter ) से सम्बन्ध रखता है और 'अभिव्यञ्जनवाद' का सम्बन्ध विधान-विधि ( Form ) से होता है । 'अभिव्यञ्जनावाद' के साथ संयुक्त होकर बँगला से हिन्दी में आने के कारण साधारणतः ‘छायावाद' के स्वरूप की ठीक भावना बहुत से रचयिताओं को भी नहीं होती । वे केवल ऊपरी रूप-रङ्ग ( Foran ) का अनुकरण करके समझते हैं कि हम रहस्यवाद' या ‘छायावाद' की कविता लिख रहे है। पर वास्तव में उनकी रचना में केवल 'अभिव्यञ्जनवाद' का अनुसरण रहता है । 'छायावाद' या 'रहस्यवाद' के अन्तर्गत उन्ही रचनाओं को समझना चाहिए जिनकी काव्यवस्तु रहस्यवाद' के अनुसार हो। रहस्यवादी काव्य-वस्तु की पहधान हम पहले वता आए है। यहाँ पर यह सृचित कर देना भी अवश्यक प्रतीत होता है कि छायावाद के अन्तर्गत बहुत सी रचनाएँ ऐसी भी हुई हैं जिनमें 'अभिव्यञ्जनवाद' के अज्ञात अनुकरण के कारण बहुत सुन्दर लाक्षणिक चमत्कार स्थान-स्थान पर मिलता है। भावना का बहुत ही साहस