पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१७

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चिन्तामणि

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चिन्तामणि क्रीड़ा नहीं देख सकते थे वे उपवनों में ही जाकर उसका थोड़ा-बहुत अनुभव कर लेते थे। वे सर्वत्र अपने को ही नहीं देखना चाहते थे । पेड़ो को मनुष्य की कवायद करते देखकर ही जो मनुष्य प्रसन्न होते है वे अपना ही रूप सर्वत्र देखना चाहते है ; अहङ्कार-वश अपने से बाहर प्रकृति की ओर देखने की इच्छा नहीं करते ।। | काव्य को जो चरम लक्ष्य सर्वभूत को प्रात्मभृत कराके अनुभव कराना है ( दर्शन के समान केवल ज्ञान कराना नही ) उसके साधन में भी अहङ्कार का योग आवश्यक है। जब तक इस अहङ्कार से पीछा न छूटेगा तब तक प्रकृति के सव रूप मनुष्य की अनुभूति के भीतर नहीं आ सकते । खेद है कि फारस की उस महफिली शायरी का कुसंस्कार भारतीयो के हृदय में भी इधर बहुत दिनो से जम रहा है जिसमे चमन, गुल, बुलबुल, लाला, नरगिस आदि का ही कुछ वर्णन विलास की सामग्री के रूप में होता है कोह, बयावान आदि का उल्लेख किसी भारी विपत्ति था दुर्दिन के ही प्रसङ्ग में मिलता है। फारस में क्या और पेड़-पौदे नहीं होते ? पर उनसे वहाँ के शायरो को कोई मतलब नहीं । अलबुर्ज जैसे सुन्दर पहाड़ का विशद वर्णन किस फारसीकाव्य में है ? पर इधर वाल्मीकि को देखिए। उन्होने प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में केवल मञ्जरियों से छाए हुए रसालो, सुरभित सुमन से लदी हुई मालती-लताओ, मकरन्दु-पराग-पूरित सरोजो का ही वर्णन नहीं किया, इङ्गुदी, अङ्कोट, तेंदू, बबूल और बहेड़े आदि जङ्गली पेड़ो को भी पूर्ण तल्लीनता के साथ वर्णन किया है। इसी प्रकार योरप के कवियों ने भी अपने गाँव के पास से बहते हुए नाले के किनारे उगनेवाली झाड़ी या बास तक का नाम ऑखो से आँसू भरकर लिया है। इससे स्पष्ट है कि मनुष्य को उसके व्यापार-गर्त से बाहर प्रकृति के विशाल और विस्तृत क्षेत्र में ले जाने की शक्ति फारस की परिमित काव्य-पद्धति से नही है–भारत और योरप की पद्धति में है।