पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१७०

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• काव्य में रहस्यवाद १६३ 'पूर्ण संचालन, मूर्तिमत्ता का बहुत ही आकर्षक विधान और व्यञ्जना की पूरी प्रगल्भता पाई जाती है। ऐसी रचना करनेवाले कवियो से आगे चलकर बहुत कुछ आशा है । अपनी इस आशा की सफः ता के लिए हम अत्यन्त प्रेमपूर्वक उनसे दो-तीन बातो का अनुरोध करते हैं। पहली बात तो यह कि वे 'वाद' का साम्प्रदायिक पथ छोड़कर, अपनी सब विशेषताओ के सहित, प्रकृत काव्यभूमि पर आएँ जिस पर संसार के बड़े-बड़े कवि रहे हैं और हैं। दूसरी बात यह कि अनुकरण के लिए वे बॅगला, अँगरेजी आदि दूसरी भाषाओं की ओर ताकना विल्कुल छोड़ दे और अपनी भापा की स्वाभाविक शक्ति से पूरा काम लें । तीसरी बात है लाक्षणिक प्रयोगों में सावधानी । इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि जिस भाव से कोई शब्द लाया गया है उसके साथ वह ठीक-ठीक बैठता है या नहीं । इसी ‘छायावाद' के भीतर कुछ लोगों की कविताएँ ऐसी भी मिलती हैं जिनका स्वरूप विलायती नहीं होता, जो कुछ थोड़ा सा बॅगलापन लिए हुए सूफियो के तर्ज पर होती हैं। इनमे लाक्षणिकता भी पूरी रहती है, पर वह अपनी भाषा की प्रकृति के अनुसार होती है, अँगरेजी से उठाई हुई नहीं होती। ऐसी कविता लिखनेवाले वे ही हैं जो हिन्दी-काव्य-परम्परा से पूर्णतया परिचित हैं, जिन्हें अपनी भापा पर पूरा अधिकार है और जो हिन्दी मे छायावाद’ प्रकट होने के पहले से अच्छी कविता करते थे । इनकी ‘छायावाद' की रचनाओ। में भी भावुकता और रमणीयता रहती है । थोड़ा खटकनेवाली बात जो मिलती है वह है फारसी शायरी के ढंग पर वेदना की अरुचिकर और अत्युक्त विवृतिः । शरीर-धर्मों का अधिक विन्यास (Animality) काव्यशिष्टता के विरुद्ध पड़ता है, यह शायद हम पहले कहीं कह आए हैं । जो हो, कोरे विलायती तमाशे से हम इसे सौ दर्जे अच्छा

  • [ देखिए पीछे पृष्ठ ११०-१११ । ]