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चिन्तामणि

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१६४ । चिन्तामणि समझने हो । यद्यपि रहस्य की ओर भारतीय काव्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं, पर हिन्दी-काव्यक्षेत्र में उसकी प्रतिष्ठा बहुत दिनों पहले से बड़े हृदयग्राही रूप में हो चुकी हैं। इसके प्रवर्तक यद्यपि मुसलमान थे, पर वे न्यू ‘रहस्यवाद' को भारतीय रूप देने में पूर्णतया सफल हुए थे । कबीर आदि निर्गुन-पंथियो र जायसी आदि सृफी प्रेममार्गियो ने 'रहस्यवाद' की जो व्यञ्जना की है वह भारतीय भाव-भङ्गी और शब्द-भक्षी को लेकर ।। अँगरेजी लाक्षणिक वाक्यो के अवतरण द्वारा विलायती तमाशा खड़ा करनेवालो का झादि रुप बीस-बाईस बर्ष पीछे मुझे आज स्मरण आ रहा है। उन ममय हिन्दी के प्रेम में बहुत से छात्र मेरे तथा मेरे साहित्य-प्रेमी मित्रों के पास भी, कविता सीखने की उत्कण्ठा प्रकट करते हुए, अंगरेजी की स्कूली कितावों में आई हुई कविताओं को प्रायः पद्यबद्ध शब्दानुवाद लेकर दिखाने शाया करते थे । मै उनसे बराबर यही कहता था कि कविता के अभ्यास का यह मार्ग नहीं है । पहले खड़ी बोली और ब्रजभापा दोनों की कविताएँ पढ़कर अपनी काव्यभापा की प्रकृति में पूर्णतया परिचित हो जाये और इस प्रकार क्रमशः अपनी भापा पर अधिकार प्राप्त करो । इसके पीछे रचना में हाथ लगाओ । अँगरेजी कविताओं के अनुवाद से हिन्दी कविता करना नहीं आ सकता । अँगरेजी कविता करना क्या कोई हिन्दी कविताओं का अनुवाद करके सीख सकता है ?? ऐसे छात्रो को मै बराबर उनके अनुवाद-सहित लौटा दिया करता था । पर कुछ दिनों पीछे उन पद्यानुवादो में से कई एक मासिक पत्रिकाओं में छपे दिखाई पड़ते थे । जब यह प्रवृत्ति कुछ बढ़ती दिखाई पड़ने लगी तव मेरे मन में यह बात आई थी कि इसका परिणाम आगे चकर अच्छा न होगा । आज वही परिणाम ‘गद्यमय जीवन' ( Prosaic ilfe ), ‘सुवर्ण स्वप्न' (Golden drearni ),स्वप्न अनिल' (Drea.