पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१७४

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काव्य में रहस्यवाद १६७ का पुराना ‘वक्रोक्तिवाद” ही है, यह भी हम निरूपित कर आए। उसके कारण शब्दाडम्बर की कितनी अधिकता हुई है, यह बात भी हम देख रहे हैं । यह कई बार हम सूचित कर चुके हैं कि योरप के समीक्षा-क्षेत्र में जितने 'वाद' निकलते हैं सब एकाङ्गदर्शी होते हैं , किसी एक ही दिशा में आँख मूंदकर हद के बाहर वढ़ते चले जाते हैं। उनमें सामअस्य-बुद्धि का अभाव होता है। अतः इस अभिव्यञ्जनवाद' से हम केवल इतना ही तथ्य ग्रहण कर सकते हैं कि हमारी काव्यभाषा में व्यञ्जना-प्रणाली के और अधिक प्रसार और चित्ताकर्षक विकास की वहुत आवश्यकता है। हमारी पुरानी कविता में व्यञ्जना-प्रणाली के प्रसार और चमत्कार के लिए अलङ्कारो का ही विधान अधिकतर होता था । पर अलङ्कारों के अधिक प्रयोग से कविता कितनी भाराक्रन्त और कहींकहीं कितनी भद्दी हो जाती है इसके उदाहरण केशवदासजी की रचनाओं में बिना हुँदै मिलेगे । अलङ्कार बहुत जगह लेते हैं और बहुत दूर तक भावना को एक ढाँचे के भीतर बंद किए रहते हैं । अतः उनका संयत प्रयोग चहीं होना चाहिए जहाँ विचार या भावना के पूर्ण प्रसार या भाव की यथेष्ट व्यञ्जना के लिए व्यास-विधान अपेक्षित हो । अब इस समय हिन्दी-काव्यभाषा में मूर्तिमत्ता की। समास-शक्ति का, लक्षण-शक्ति का, अधिक विकास अपेक्षित है । काव्य में अधिकतर सादृश्य या साधम्र्यमूलक अलङ्कारो को व्यवहार होता है। पर बहुत से स्थलो पर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि के बँधे हुए लंबे-चौड़े ढॉचो की अपेक्षा लक्षणा से बहुत अधिक रमणीयता और बाग्वैचित्र्य का संपादन हो सकता है। लाक्षणिकता के सम्यक् और स्वाभाविक विकास द्वारा भाषा भावक्षेत्र और विचारक्षेत्र दोनों में बहुत दूर तक, वहुत ऊँचाई तक और बहुत गहराई तक प्रकाश फेंक सकती है। छायावाद समझकर लिखी हुई कविताओं