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चिन्तामणि

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चिन्तामणि में से बहुत में, अनुकरण-वश सही, लाक्षणिक प्रवृत्ति देख चडी प्रसन्नता होती है । लाक्षणिकता के अधिक विधान की अव विशेर के भीतर ही नहीं, समूचे हिन्दी-काव्यः यह विधान खून समझ-बूझकर होना चाहिए । प्रकृति की इतनी अवहेलना होनी चाहिए कि प्रयाग शब्द-प्रति-शब्द रख लिए जायें अरि । मुहावरे से फिसलने का इतना डरे छाया रहना उड़ने से कुछ पहले की अवस्था सृचित करने के रही हैं लिखते हाथ रुक जाय । सामञ्जस्य-बु अग्रसर होना होगा । मुहावरे लाक्षणिक प्रयोग उनसे किसी भाषा की लाक्षणिक प्रवृत्ति के स्वरूप अतः उनका सुत्र पकड़े हुए लक्षणा इधर-उधर सकती है । उदाहरण के लिए ‘लालसा जगना' । पर 'लालसा सोती हैं हम वेधड़क कह सकते चढ़करे ‘लालसा का अखि मलना, करवट बद लना’ ‘मुंह का कमल को लात मारना' हो जाय। भत्ता गुड़ियों का खेल न होने पाए। हमारा । मुहावरों के रास्ते के भीतर ही लक्षणा अप तात्पर्य इतना ही है कि अपनी भापा की प्रकृति का ध्यान रखकर चला जाय । “छायावाद' या 'रहस्यवाद' के सम्बन्ध मे ज बश तरह तरह की भ्रान्ति हिन्दी-पाठको के वीर की जाती है, वह असभ्यता-सूचक है । यह कह