पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१७६

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काव्य मै रहस्यवाद १६९ १८८५ में जो प्रतीकवाद-मिश्रित नूतन रहस्यवाद फ्रांसीसी साहित्यक्षेत्र के एक कोने में प्रकट हुआ—जिसकी नकले बँगला से होती हुई हिन्दी मे आई-वह किस प्रकार एक साम्प्रदायिक वस्तु है और योरप के अधिकांश साहित्यिको द्वारा किस दृष्टि से देखा जाता है, यह हम अच्छी तरह दिखा चुके हैं। दूसरी बात लीजिए। हम नहीं समझते कि बिना हिन्दीवालो की खोपड़ी को एकदम खोखली माने उनके बीच इस प्रकार के अर्थशून्य वाक्य 'छायावाद' के सम्बन्ध में। कैसे कहे जाते हैं कि “यह नवीन जागृति का चिह्न है, देश के नवयुवको के हृदय की दहकती हुई आग है इत्यादि, इत्यादि । भला, देश की नई ‘जागृति' से, देशवासियो की दारुण दशा की अनुभूति से और असीम-ससीम के मिलन, अव्यक्त और अज्ञात की झॉकी आदि का क्या सम्बन्ध ? क्या हिन्दी के वर्तमान साहित्यक्षेत्र में शब्द और अर्थ का सम्वन्ध बिल्कुल टूट गया है ? क्या शब्दों की गर्द-भरी ऑधी विलायत के कलाक्षेत्र से धीरे-धीरे हुटती हुई अव हिन्दीवालों को अॉख खोलना मुश्किल करेगी ? यदि ऐसा नहीं है तो मासिक पत्रिकाओं में कभी कभी योरप की काव्य-समीक्षा की पुस्तकों की केवल आलङ्कारिक पदावली विना किसी विचार-सूत्र के काव्य या कला की आलोचना के नाम से कैसे निकला करती है ? किसी अँगरेज़ी या बॅगला के कवि के सम्बन्ध में। लिखी हुई लच्छेदार उक्तियाँ किसी नए या पुराने हिन्दी-कवि के सम्बन्ध में नई आलोचना के रूप में कैसे भिड़ा दी जाती हैं ? ऐसी कार्रवाइयाँ हिन्दी-साहित्य के स्वतन्त्र विकास में बाधक हो रही हैं। हिन्दी-पाठको को इस प्रकार अन्धा मान लेना हम बड़े अपमान की बात समझते हैं । | यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि हमारे काव्य का, हमारे साहित्य-शास्त्र का, एक स्वतन्त्र रूप है जिसके विकास की