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चिन्तामणि

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१७२ चिन्तामणि इसके पहले हम बाहर के नाना वादो और प्रवाद की ओर ऑखें मूंदकर लपका करेगे । अपने विचार के परीक्षालय में उनकी पूरी जॉच न करके उनके अनुकरण में ही अपने को धन्य माना करेगे ।। इस परीक्षालय की नूतन प्रतिष्ठा के लिए हमें अपनी रसनिरूपणपद्धति का आधुनिक मनोविज्ञान आदि की सहायता से खुव प्रसार संस्कार करना पड़ेगा । इस पद्धति की नीचें बहुत दूर तक डाली गई है; पर इसके ढॉचो का, नए-नए अनुभव के अनुसार, अनेक दिशाओं में फैलाव बहुत जरूरी है। योरप के साहित्यिक वादो और प्रवाद के सम्बन्ध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि वे प्रतिवर्तन (Reaction ) की झोक मे उठते हैं और किसी ओर हद के बाहर बढ़ते चले जाते हैं। उनमें सत्य की मात्रा कुछ न कुछ हती अवश्य है; पर किसी हद तक ही । -हमें देखना चारो ओर चाहिए; पर सव देखी हुई बातो का सामञ्जस्य-बुद्धि से समन्वय करना चाहिए। जैसा हम आरम्भ ही में कह चुके हैं, यही सामजस्य भारतीय काव्य-दृष्टि की विशेपता है । यही सामञ्जस्य अनेकरूपात्मक जीवन और अनेक भावात्मक काव्य की सफलता की मृल-मत्र है। = =