पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१८०

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद ( माननीय विद्वजन ।। | आज मेरे ऐसे अयोग्य और अकर्मण्य व्यक्ति को इस आसन पर पहुँचाकर आप महानुभावों में केवल अपने अमोघ कृपावल का परिचय दिया है, यह कहना तो कदाचित् बहुत दिनों से चली आती हुई एक रूढ़ि या परम्परा का लिन मान्न समझा जायगा । पर इसका प्रमाण अापको अभी थोड़ी देर में मिल जायगा । ऐसी जगमगाती विद्वन्मण्डली के बीच मेरा कर्त्तव्य केवल अपने दोनों कान खुले रखने का था, न कि मुँह खोलने का । पर ग्राप लोग शायद इधर कार्य भार से थककर कुछ विनोद की सामग्री चाहते थे। मूर्ख हास्य रस के प्राचीन श्रालम्बन हैं। जाने कब से वे इस संसार को रुखाई के बीच लोगों को खुलकर हँसने का अवसर देते चले आ रहे हैं। यदि मुझसे इतना भी हो सके तो मैं अपना परम सौभाग्य समझेगा ।। सम्मेलन ने जव से अपने अधिवेशन के साथ बाय के कुछ विभाग की अलग-अलग बैठक की व्यवस्था की तभी से यह समझा जाने लगा है। कि वह प्रचार कार्य के साथ साथ प्रत्येक विभाग की स्थिति की निरन्तर समीक्षा का विधान भी करना चाहता है । वाङमय के भिन्न-भिन्न क्षेत्र किस दशा में हैं इसकी सग्य विवृति प्रत्येक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं द्वारा मिलकर विचार करने से ही हो सकती है । आज जिस विभाग की विचार-सभा में सम्मिलित होने का अधिकार प्राप महानुभावों ने मुझे दिया है वह है साहित्य-विभार ! अत इस बात का ध्यान मुझे बराबर रखना पड़ेगा कि जो कुछ मैं कहूँ वह उस विभाग के भीतर की बात हो । कहीं उसके वाहर न जा पड़े, इस डर से कुछ हदवदी मैं कर लेना चाहता हूँ, यह स्थिर कर लेना चाहता हूँ कि शुद्ध साहित्य के भीतर क्या क्या प्राता है ।* ) । * { चौबीसवें हिंदी-साहित्य-समेलन इंदौर की साहित्य परिषद् के सभापति-पद से किया हुआ भापण । ] = == = == = = = = = == =